शिमलाः पूरे देश की तरह ही देवभूमि हिमाचल में भी एक बार फिर मोदी मैजिक चला है और इसमें विपक्षी साफ हो गए हैं. बीजेपी ने राज्य में क्लीन स्वीप किया है. 2014 में मोदी लहर में प्रदेश की चारों सीटें जीतने के बाद एक बार फिर प्रदेश की चारों सीटें भाजपा की झोली में गई हैं.
प्रदेश की चारों सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों ने ऐतिहासिक जीत दर्ज करते हुए कई रिकॉर्ड ध्वस्त किए हैं. कांगड़ा सीट पर भाजपा प्रत्याशी किशन कपूर ने बड़ी जीत दर्ज करते हुए कांग्रेस के पवन काजल को 477,623 मतों से हराया है. वहीं, मंडी सीट से रामस्वरूप शर्मा ने कांग्रेस के आश्रय शर्मा को 405,459 मतों से हराया है.
यही नहीं लगातार चौथी जीत दर्ज करने वाले और पार्टी में बड़ा चेहरा बन चुके अनुराग ठाकुर ने भी कांग्रेस प्रत्याशी अनुराग ठाकुर को 399,576 मतों से हराया है. हिमाचल की राजनीति में सभी चारों सीटों पर जीत का ये मार्जिन ऐतिहासिक और अप्रत्याशित है.
वहीं, कांग्रेस को देश ही नहीं हिमाचल में भी करारी हार मिली है. कांगड़ा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी पवन काजल को कुल 24.59 फीसदी मत ही मिले हैं. वहीं, हमीरपुर सीट से रामलाल ठाकुर को 28.63 मत मिले. मंडी से आश्रय शर्मा को 25.68 और शिमला से धनीराम शांडिल को 30.5 फीसदी वोट मिले. वहीं, भाजपा को मिला मतदान प्रतिशत औसतन 70 फीसदी है.
हिमाचल में 4 सीटों पर चारों खाने क्यों चित हुई कांग्रेस. देश और प्रदेश में कांग्रेस की हार ने पार्टी को लेकर कई बड़े सवाल पैदा कर दिए हैं. आखिर क्या वजह है कि कांग्रेस लगातार हाशिये पर खिसकती चली गई. आखिर कांग्रेस से क्या गलतियां हुईं कि वह मोदी लहर के सामने नहीं टिक पाई. नजर डालते हैं प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति पर कि कांग्रेस से कहां चूक हुई.
जमीन पर संगठन की उदासीनता
कांग्रेस पार्टी की लोकसभा चुनाव में जमीनी स्तर पर उदासीनता देखने को मिली. पार्टी को प्रदेश में जिस स्तर का चुनाव प्रचार और मतदाताओं तक पहुंच बनानी चाहिए तो वो उसमें कामयाब नहीं हो पाई. इसका नतीजा भाजपा प्रत्याशियों के बड़े मार्जिन में साफ दिखता है.
ऐन मौके पर पार्टी अध्यक्ष के पद में बदलाव
जब लोकसभा चुनाव के लिए सभी दल तैयारियों में जुटे थे तो कांग्रेस ने हिमाचल में अध्यक्ष पद में बदलाव कर दिया. 10 जनवरी को कांग्रेस ने सुखविंद्र सिंह सुक्खू को हटाकर कुलदीप राठौर को हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया. जिसकी वजह से संगठनात्मक उथल-पुथल मचना लाजमी था.
हिमाचल में 4 सीटों पर चारों खाने क्यों चित हुई कांग्रेस. पार्टी के भीतरी खींचतान
प्रदेश कांग्रेस में जो भीतरी खींचतान है वो किसी से छिपी नहीं है. पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और पूर्व पीसीसी चीफ सुखविंद्र सिंह सुक्खू के बीच की रार अक्सर मंचों पर भी दिखाई देती है. सोलन में राहुल गांधी में की रैली के दौरान भी वीरभद्र सिंह ने राष्ट्रीय नेताओं की मौजूदगी में भरे मंच सुखविंद्र सिंह सुक्खू पर हमला बोला था. वहीं, चुनावी नतीजों के बाद भी वीरभद्र सिंह ने सुक्खू को ही हार का जिम्मेदार ठहराया.
प्रत्याशियों के चयन में देरी
लोकसभा चुनाव की घोषणा होने के बाद ही भाजपा ने हिमाचल में प्रत्याशियों के नामों का एलान कर दिया, लेकिन कांग्रेस ने प्रत्याशियों के चयन में काफी देर लगा दी. चारों सीटों पर प्रत्याशियों के नाम फाइनल करने के लिए कांग्रेस को काफी माथापच्ची करनी पड़ी. प्रदेश के बड़े नेताओं के अलावा पार्टी हाईकमान के लिए भी हमीरपुर औऱ मंडी सीट पर उम्मीदवार देना टेढ़ी खीर बन गया था.
सुखराम और सुरेश चंदेल को पार्टी में जगह
कांग्रेस की हार का एक मुख्य कारण पार्टी नेताओं को नजर अंदाज कर पैराशूटी नेताओं को टिकट देना भी है. मंडी सीट पर पार्टी ने दोबारा कांग्रेस में शामिल हुए सुखराम के पोते आश्रय शर्मा को टिकट दिया, तो वहीं, हमीरपुर सीट पर भी पूर्व भाजपा नेता सुरेश चंदेल को टिकट दिए जाने की अटकलें जोरों पर थीं, लेकिन एन वक्त हमीरपुर सीट से रामलाल ठाकुर को टिकट दी गई. ऐसे में पार्टी कैडर को छोड़कर दुसरे नेताओं को टिकट देना भी पार्टी की हार का एक कारण है.
भाजपा का सुनियोजित प्रचार
हिमाचल में दो ही प्रमुख दल हैं भाजपा-कांग्रेस, ऐसे में सत्ता की जो लड़ाई है वो इन्हीं दो दलों के बीच है. हिमाचल में कांग्रेस को मिली हार का एक कारण ये भी है पार्टी भाजपा की तरह सुनियोजित प्रचार नहीं कर पाई. राज्य में प्रचार के लिए कांग्रेस ने राज्य स्तरीय नेताओं के अलावा राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा जैसे स्टार प्रचारकों की रैलियां हिमाचल में प्रस्तावित की थी, लेकिन कांग्रेस प्रियंका गांधी की रैली हिमाचल में नहीं करवा पाई. वहीं, भाजपा ने यहां पार्टी अध्यक्ष के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियां भी हिमाचल में करवाईं.
हिमाचल में 4 सीटों पर चारों खाने क्यों चित हुई कांग्रेस. बूथ मैनेजमेंट
कांग्रेस पार्टी की हार का एक कारण ये भी माना जा सकता है कि पार्टी बूथ मैनेजमेंट नहीं कर पाई. पार्टी भाजपा के मुकाबले बूथ पर अपने कार्यकर्ताओं को आम मतदाताओं के साथ जोड़ने में सफल नहीं रही. जिस वजह से कार्यकर्ताओं की पकड़ जमीनी स्तर पर मजबूत नहीं हो पाई. वहीं, भाजपा ने जमीन पर काम करते हुए अपना बूथ सबसे मजबूत जैसे कार्यक्रम चलाए.
भाजपा का पन्ना प्रमुख कॉन्सेप्ट
प्रदेश में बीजेपी के चारों प्रत्याशी बड़े मार्जिन से तो जीते ही, साथ ही उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा. इस जीत के पीछे पीएम नरेंद्र मोदी फैक्टर तो है ही, साथ में पन्ना प्रमुखों की भी खासी भूमिका अदा की. पन्ना प्रमुखों की बदौलत पार्टी घरों तक में घुस गई और वोटरों का आकलन कर उन्हें साध लिया.
सोशल मीडिया का बेहतर प्रबंधन
बीते कुछ सालों से सोशल मीडिया की भूमिका चुनावों में बहुत तेजी से बढ़ी है. खासकर फेसबुक और व्हॉट्सएप दो ऐसे माध्यम बने हैं जिनसे प्रचार-प्रसार तेजी से बढ़ा है. भाजपा ने सोशल मीडिया का ताकत समझते हुए इसका खुब फायदा उठाया. चाहे बात 2014 के लोकसभा चुनाव की हो या फिर मौजूदा चुनाव की, लेकिन कांग्रेस सोशल मीडिया का बेहतर प्रबंधन नहीं कर पाई.
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