सिरमौर: समूचे देश में दिवाली कार्तिक माह की अमावस्या को मनाई जाती है, लेकिन सिरमौर जिले के गिरीपार क्षेत्र जिसमें पच्छाद, रेणूका, शिलाई विधानसभा क्षेत्रों के साथ साथ पांवटा विधानसभा क्षेत्र के भी कुछ इलाके हैं, जहां दिवाली के ठीक एक महीने बाद फिर से दिवाली मनाई जाती है. इस अनोखे त्योहार को बूढ़ी दिवाली या मशराली कहा जाता है. यहां इस क्षेत्र में यह पर्व ठीक एक महीने बाद क्यूं मनाया जाता है, इसके बारे मे कोई ठोस प्रमाण तो मौजूद नहीं है. मगर फिर भी अलग-अलग क्षेत्रों में इसे मनाया जाता है. इस संबंध में दो मान्यताएं विशेष तौर पर प्रचलित हैं.
कुछ लोगों का मानना है कि दिवाली के समय में महाभारत कालीन युद्ध चल रहा था. इस युद्ध की समाप्ति के बाद कबायली क्षेत्र में फिर से दिवाली मनाई गई. जबकि एक मान्यता यह भी है कि दैत्य राज बली के द्वारा एक दिन के लिए धरती पर आगमन की खुशी से इस क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली की परंपरा शुरू हुई. ऐसा भी माना जाता है कि जिस समय इस दिवाली का पर्व आता है उस समय इस क्षेत्र में फसलों और पशू चारा के एकत्रीकरण व भंडारण का कार्य जौरों पर चला होता है. इसके साथ-साथ यहां सर्दियों मे भारी हिमपात होने के कारण लोग ईधन की लकड़ी का भंडारण भी इन्ही दिनों में करते हैं. इसलिए दिवाली के समय लोग काफी व्यस्त रहते हैं. शायद इसलिए लोगों ने यहां ठीक एक महीने बाद अगली अमावस्या को दिवाली मनाने का निर्णय लिया होगा.
इनमें से किसी भी बात का कोई ठोस साक्ष्य या प्रमाण नहीं मिलता है. यहां बूढ़ी दिवाली का शुभारंम ग्राम देवता की पांरपरिक पूजा के साथ होता है. बूढ़ी दिवाली (festival of budhi diwali) का पर्व बुरी आत्माओं को गांवों से बाहर खदेड़ने के लिए मशाल यात्रा के साथ ही शुरू होता है और यहां बूढ़ी दिवाली का पर्व सात दिनों तक चलता है. मान्यता है कि गिरिपार क्षेत्र में सतयुग से लेकर बूढ़ी दिवाली की रिवायत चली आ रही है.
बूढ़ी दिवाली पर्व (budhi diwali 2021) की खास बात यह है कि देश भर में अनोखा त्योहार आज भी प्राचीन तरीके से ही मनाया जाता है और पाश्चात्य संस्कृति के इस दौर में भी क्षेत्र के लोगों ने इस कबायली परम्परा को संजो कर रखा है. बूढ़ी दिवाली देश भर में प्राचीन संस्कृति के संरक्षण का जीवंत उदाहरण है. इस पर्व की शुरुआत पोष माह की अमावस्या की रात को गांव के सांझे प्रांगण में अलाव जलाकर और अगली सुबह मशाल यात्रा निकालकर होती है. मशाल यात्रा के दौरान प्राचीन वाद्य यंत्रों की धुनों में नाचते गाते मदमस्त लोग पहाड़ी भाषा में देव स्तुतियां करते हैं. साथ ही बुरी आत्माओं को भला बुरा कह कर गांव से बाहर खदेड़ते हैं और बुराइयों को खदेड़ने की खुशी में बलिराज जलाते हैं.