कुल्लूःदेवताओं की गोद में बसा कुल्लू अपनी देव संस्कृति के लिहाज से विश्व प्रसिद्ध है. प्रदेश में ग्रामीण स्तर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले उत्सवों में कुल्लू दशहरा ने जो ख्याति अर्जित की है. बह इस बार कोरोना के चलते देखने को नहीं मिली.
इस बार कुल्लू दशहरा में न तो व्यपार, न लोगों के मनोरंजन था. इस बार था तो बस चारों ओर सन्नाटा. व्यापार की दृष्टि से न तो इस बार व्यापारी आ पाए हैं. लाल चंद प्रार्थी कलाकेंद्र में लोगों का मनोरंजन करने के लिए पूरे विश्व के कलाकार पहुंचते थे, लेकिन इस बार कोरोना के चलते मनोरंजन के कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किए गए.
दशहरा उत्सव में गीत-संगीत यानि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का पक्ष इतना मजबूत और आकर्षक होता था कि लोग उत्सुकता, बेसब्री व तन्मयता से सांस्कृतिक कार्यक्रमों का इंतजार करते थे. दशहरा उत्सव के मुख्यत: तीन भाग ठाकुर निकालना, मोहल्ला और लंका दहन है. दशहरे के शुरू में राजाओं के वंशजों की ओर से देवी हिडिंबा की पूजा-अर्चना की जाती है.
इसके अलावा राजमहल से रघुनाथ की सवारी रथ मैदान ढालपुर की ओर निकल पड़ती है. राजमहल से रथ मैदान तक की शोभा यात्रा का दृश्य अनुपम व मनमोहक होता है. ढालपुर रथ मैदान में रघुनाथ की प्रतिमा को सुसज्जित रथ में रखा जाता है.
प्रत्येक देवी-देवता की पालकी के साथ ग्रामवासी पारंपरिक वाद्य यंत्रों सहित उपस्थित होते हैं. इन वाद्य यंत्रों की लयबद्ध ध्वनि व जयघोष से वातावरण में रघुनाथ की प्रतिमा रखे रथ को विशाल जनसमूह की ओर से खींचकर ढालपुर मैदान के मध्य तक लाया जाता है, जहां पूर्व में स्थापित शिविर में रघुनाथ जी की प्रतिमा रखी जाती है, लेकिन इस बार सिर्फ परंपरा का ही निर्वाहन सीमित तौर पर किया गया. रघुनाथ की इस रथयात्रा को ठाकुर निकालना कहते हैं.
रथयात्रा के साथ कुल्लवी परंपराओं, मान्यताओं, देवसंस्कृति, पारंपरिक वेशभूषा, वाद्य यंत्रों की धुनों, देवी-देवताओं में आस्था, श्रद्धा व उल्लास का एक अनूठा संगम होता है. मोहल्ले के नाम से प्रख्यात दशहरे के छठे दिन सभी देवी-देवता रघुनाथ के शिविर में शीश नवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं. इस दौरान देवी-देवता आपस में इस कद्र मिलते हैं कि मानों मानव को आपसी प्रेम का संदेश दे रहे हों.