कुल्लू: हस्तशिल्प किसी भी देश की सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. हस्तशिल्प के माध्यम से लाखों ऐसे लोगों को जीवन यापन का आधार मिलता है, जो पुश्तैनी तौर पर उनसे जुड़े होते हैं. मगर मशीनों के चलन और सरकारों की उदासीनता के चलते अनेक हस्तशिल्प सिकुड़ते या फिर खत्म हो गए हैं. हिमाचल में लकड़ी के खिलौने, पत्थर और लकड़ी की नक्काशीदार वस्तुएं बनाने का काम लगभग उजड़ गया है.
एक समय था जब गांव-गांव में कारीगर अपने हाथों से मिट्टी के बर्तन, खिलौने, सजावटी सामान बनाते थे. उसी तरह लोहे, लकड़ी और पत्थर के उपकरण, खिलौने वगैरह बनाए जाते थे, जिससे अनेक लोगों के परिवार का गुजारा होता था, लेकिन अब मशीन से बने प्लास्टिक आदि के सजावटी सामान, खिलौने वगैरह बाजार में आ जाने की वजह से हस्तशिल्प के ठिकाने सिमटते या फिर उजड़ते गए हैं. यूं तो तमाम राज्य सरकारें अपने यहां के हस्तशिल्प को प्रोत्साहित करने के लिए योजनाएं चलाती रहती हैं और शिल्प मेलों के आयोजन होते हैं. कारीगरों को पुरस्कृत करने की योजनाएं भी हैं, लेकिन इनसे उनकी दशा पर कोई सकारात्मक असर नहीं दिखता.
हस्तशिल्प उद्योग पर गहराते संकट के पीछे बड़ा कारण प्लास्टिक से बनी वस्तुओं का चलन है. प्लास्टिक की वस्तुएं हाथ से बनी लकड़ी, पत्थर आदि की वस्तुओं से काफी हल्की और सस्ती होती हैं. उन्हें सामान्य आयवर्ग का व्यक्ति भी खरीद और इस्तेमाल कर सकता है. इसलिए उनका चलन काफी तेजी से बढ़ा है. ऐसे में हथकरघा व हस्तशिल्प उद्योग अब धीरे-धीरे इस आधुनिक व मशीनी युग की भागमभाग में घटता जा रहा है. अब हस्तशिल्प को ज्यादा रिस्पॉन्स नहीं मिलता.
आज हस्तशिल्प से बनी वस्तुओं का प्रदर्शन ड्राइंग रूम की दीवारों पर मात्र लटकने वाले एक शोपीस तक सीमित हो गया है. इससे इस कुटीर उद्योग में जुड़े हजारों कारोबारी हाथ पर हाथ धरे रह गए हैं. मंडी से कारोबारी मेहर सिंह व ब्रिज लाल का कहना है कि अब युवा भी इस कारोबार से जुड़ने से इंकार कर रहे हैं. उनका कहना है कि प्रदेश की पारंपरिक वस्तुएं जिनका पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए अहम रोल होता है, अब उसे प्लास्टिक उद्योग ने एकदम खत्म कर दिया है. इससे हस्तशिल्पकारी भी हताश हो गए हैं और इससे कारोबार पर भी बुरा असर पड़ा है.
हिमाचल प्रदेश में 20 हजार कारीगर इससे प्रभावित: आलम यह है कि हिमाचल प्रदेश में 20 हजार कारीगर इससे प्रभावित हुए हैं और 5 हजार कारीगरों ने अपनी दुकानों को बंद कर दिया है. प्रदेश के सभी मेले जो कई सदियों से प्रदेश की संस्कृति का प्रतीक रहे हैं और यहां प्रयोग होने वाले औजार व बांस की लकड़ी से बनने वाले किल्टे, टोकरी व कई प्रकार की वस्तुओं से लोग जी चुराने लगे हैं. हालांकि प्रदेश में हस्तशिल्प जो मेले का अहम पहलू होता था, उससे विमुख होने वाला इंसान आज इसकी महत्ता को भूलकर पर्यावरण को प्रदूषित करने वाली वस्तुओं की ओर बढ़ रहा है.
समाप्ति की ओर हस्तशिल्प कारोबार: वहीं, कारीगरों का कहना है कि हालांकि प्लास्टिक की वस्तुएं टिकाऊ व किफायती लगती हैं लेकिन इनसे पर्यावरण को बचाने की जगह उसे प्रदूषित करने की क्षमता ज्यादा होती है. पहले जब बांस के बने किल्टे व टोकरी जोकि टूट कर भी खेतों में खाद के लिए उपयोग में लाए जाते हैं, मगर इनका कारोबार करने वाले व इन्हें बनाने वालों को मशीनी युग की मार सहन करनी पड़ रही है, जिससे यह उद्योग समाप्ति की ओर अग्रसर है.
शोपीस बनकर रह गया है हस्तशिल्प कारोबार: हालांकि केंद्रीय हथकरघा व हस्तशिल्प मंत्रालय (Union Ministry of Handlooms and Handicrafts) इस ओर गंभीर है लेकिन इस ओर ध्यान न देना राज्य सरकार की नाकामी है. इसके लिए लोगों में जागरूकता की कमी भी जिम्मेदार है, क्योंकि सरकार की योजनाएं नहीं पहुंचती या उन्हें स्कीमों का ज्ञान नहीं है. इसके प्रति जागरूक होकर कृषि व बागवानी कार्य में रोज प्रयोग होने वाली इन वस्तुओं के बाजार में ग्राहक नहीं हैं, लेकिन आधुनिकता के इस दौर में हस्तशिल्प कारोबार शोपीस बनकर रह गया है. हथकरघा व हस्तशिल्प से जुड़े दस्तकारियों की कहानी उन्हीं की जुबानी कहें तो प्लास्टिक के सामान पर सरकार को प्रतिबंध लगाना चाहिए क्योंकि आब-ओ-हवा के लिए प्लास्टिक ऐसे भी खतरनाक है. ऐसे में जहां उनके सामान का भी संरक्षण हो जाएगा. वहीं, प्रदूषण से भी निजात मिल जाएगा.