बिलासपुर:17 मार्च से जिला बिलासपुर के लुहणू मैदान में मनाए जाने वाला राज्य स्तरीय नलवाड़ी मेला इस वर्ष 133वें साल में प्रवेश करने जा रहा (Nalwari Fair of Bilaspur) है. जिला प्रशासन द्वारा मेले को लेकर सारी औपचारिकताएं पूरी की जा रही है, लेकिन मेले की वास्तविकता पूरी तरह से खत्म होने की कगार पर है. गोबिंद सागर झील में डूबे सांडू के मैदान में आयोजित होने वाले मेले ने नए शहर बिलासपुर के लुहणू मैदान तक का लंबा सफर तय किया है.
60 के दशक में नलवाड़ी मेला सांडू मैदान में राजा के आदेशों के मुताबिक चलता था. उस समय भी यहां पर व्यापारी सामान लेकर पहुंचते थे. तब ऊंटों में सामान लेकर व्यापारी पंजाब के रोपड़ व नवांशहर से यहां पहुंचते थे. रोपड़, नालागढ़ और बिलासपुर के ग्रामीण क्षेत्रों से बैलों की मंडी नलवाड़ी मेले में लगती (history of Bilaspur Nalwari Fair ) थी. हजारों की संख्या में पशुओं का क्रय-विक्रय होता था. किसी समय उत्तर भारत के प्रसिद्ध मेलों में बिलासपुर का नलवाड़ मेला होता था, लेकिन अब ये मेला अपना वास्तविक स्वरूप खो चुका है.
कभी लाखों के पशुधन का इस मेले में कारोबार होता था. अब यहां बैल पूजन के लिए भी बैल मंगवाने पड़ते हैं, हालांकि मेलों में लोग नाममात्र की गाय, भैंस और कुछ बैल लेकर पहुंचते हैं. वह भी यहां आयोजित होने वाली पशु प्रतियोगिताओं में भाग लेने पहुंचते हैं. जिस कारण अब यह मेला रस्मों को अदा करने तक ही रह गया (Bilaspur Nalwari Fair importance) है. हालांकि सरकारी अमले का मेले को सफल बनाने का काफी प्रयास रहता है.
बिलासपुर का नलवाड़ी मेला. (फाइल फोटो) बता दें कि करीब 60 सालों से अधिक समय से इस मेले को लुहणू मैदान में आयोजित किया जाता (Bilaspur Nalwadi Fair lost original form) है. नलवाड़ी मेले में पहले भी रात्रि कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे, जिसमें प्रसिद्ध लोक कलाकार लोक संस्कृति से ओतप्रोत कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे. उस समय स्वर्गीय गंभरी देवी, रोशनी देवी व संतराम चब्बा आदि प्रसिद्ध लोक कलाकार हुआ करते थे. जिन्हें सुनने के लिए दूरदराज के क्षेत्रों से पहुंचते थे.
नलवाड़ी में लाखों का कारोबार:वहीं, मेले के पतन के लिए आधुनिकता की चकाचौंध को भी काफी हद तक जिम्मेदार माना जा रहा है, क्योंकि जब से ट्रैक्टर से खेती का प्रचलन बढ़ा तब से लेकर अब धीरे-धीरे बैलों का महत्व खत्म होता जा रहा है. बिलासपुर में भी पहले नलवाड़ी में लाखों का कारोबार बैलों की खरीद फरोख्त का होता था. यही नहीं दूसरे राज्यों से भी इस मेले में बैलों के कारोबारी पहुंचते थे. अब हालत ऐसे हो गए है कि मेले के उद्घाटन मौके पर भी बैल तलाश कर पहुंचाए जाते हैं.
बिलासपुर का नलवाड़ी मेला. (फाइल फोटो) 1985 में पूर्व मंत्री रामलाल ठाकुर ने शुरू की थी शोभायात्रा:प्राप्त जानकारी के अनुसार 1985 में बिलासपुर जिले से पहली बार रामलाल ठाकुर मंत्री बने थे. पूर्व में रहे वन मंत्री रामलाल ठाकुर ने उस वक्त के रहे मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह से इस मेले को राज्य स्तर का दर्जा दिलाया था. उसके बाद नगर के लक्ष्मी नारायण मंदिर से नलवाड़ी मेले के लिए पहली बार शोभायात्रा निकाली गई थी. उसके बाद यह प्रचलन अब हर साल किया जाता है.
कुश्तियों में पाकिस्तान से आते थे पहलवान:जानकारी के अनुसार बिलासपुर के नलवाड़ी मेले में पाकिस्तान तक के पहलवान यहां पर अपना दमखम दिखाने के लिए पहुंचते थे. वहीं, बिलासपुर में मासर चांदी राम हरियाणा, मेहर दीन पाकिस्तान व अन्य नामी पहलवान बिलासपुर की कुश्ती में अपना दमखम दिखा चुके है. लेकिन अब की कुश्ती में वह पुरानी बात नहीं रही हैं, क्योंकि लोगों का कहना है कि अब की कुश्ती सिर्फ पैसा बटोरने वाली रह गई है.
बिलासपुर का नलवाड़ी मेला. (फाइल फोटो) नलवाड़ी से पहले बसंत उत्सव मनाता था बिलासपुर:जानकारी के अनुसार बिलासपुर का नलवाड़ी मेला पहले बसंत उत्सव के नाम पर मनाया जाता था. कहलूर रियासत के राजा के समय बिलासपुर का नाम पहले इंद्रपुरी हुआ करता था. ऐसे में जब कहलूर रियासत के अंतिम राजा विजय चंद का बेटा 1936 में राजा आनंद हुआ तब इसका नाम नलवाड़ी मेला के रूप में मनाया गया था.
बिलासपुर का नलवाड़ी मेला. (फाइल फोटो)
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