शिमला: आजाद भारत के इतिहास में साल 1971 के भारत-पाक शिमला समझौते का अहम स्थान है. ऐतिहासिक शहर शिमला ब्रिटिश हुकूमत के समय भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही है. आजादी के बाद भी शिमला शहर का महत्व खूब बना रहा. इसका प्रमाण है शिमला समझौता. साल 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटने के दौरान भारत की पीएम आयरन लेडी इंदिरा गांधी थीं. उसके बाद पाकिस्तान के मुखिया जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ शिमला समझौता हुआ था. इस समझौते पर शिमला स्थित राजभवन में जिस टेबुल पर हस्ताक्षर हुए थे, वो आज भी लोगों की उत्सुकता का केंद्र है.
हिमाचल राजभवन की ईमारत का नाम बार्नेस कोर्ट है. बाद में इसे हिमाचल भवन भी कहा जाता था. अब ये राजभवन के नाम से जाना जाता है. यहीं पर इंदिरा व भुट्टो के बीच शिमला समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे. साल 1971 में युद्ध हार जाने के बाद जब पाक के मुखिया जुल्फिकार अली भुट्टो को अहसास हुआ कि अब उन्हें देश में भारी विरोध का सामना करना होगा, तो उन्होंने भारतीय पीएम इंदिरा गांधी के पास बातचीत व समझौते का संदेश भेजा.
भारत ने भी बात आगे बढ़ाई और साल 1972, 28 जून से 2 जुलाई के दरम्यान शिमला में शिखर वार्ता तय हुई. हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा 25 जनवरी 1971 को मिला था. डेढ़ ही साल बाद हिमाचल को ये गौरव हासिल हुआ कि उसकी जमीन पर ऐतिहासिक समझौता हुआ.
इंदिरा ने खूब दिखाई भारत की ताकतसमझौते के लिए पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल अपने पीएम जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ शिमला पहुंचा. इंदिरा गांधी पहले से ही शिमला में थीं. शिमला में उस समय के मीडिया कर्मी प्रकाश चंद्र लोहुमी के पास शिमला समझौते की कई यादें हैं. वे मीडिया कवरेज के लिए शिमला में ही थे. लोहुमी वरिष्ठ पत्रकार हैं. खैर, समझौते के लिए भारत ने पाकिस्तान के समक्ष कुछ शर्तें रखीं. पाकिस्तान को कुछ एतराज था, लेकिन इंदिरा गांधी यूं ही आयरन लेडी नहीं थी. उन्होंने पाकिस्तान को झुका ही दिया.युद्ध में करारी शिकस्त झेलने के बाद पाकिस्तान की समझौते के टेबल पर ये दूसरी हार थी. शिमला के वरिष्ठ पत्रकार पीसी लोहुमी व रविंद्र रणदेव (रणदेव का हाल ही में निधन हुआ) इस समझौते की कई बातें बताया करते थे. हुआ यूं कि समझौते से पहले बात बिगड़ गई थी. तय हुआ कि पाकिस्तान का प्रतिनिधिमंडल वापिस चला जाएगा, लेकिन इंदिरा की कूटनीति काम आई. साल 1972 को दो जुलाई से पहले पाकिस्तान के लिए विदाई भोज रखा गया था. उम्मीद थी कि शायद कोई बात बन जाएगी, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो वहां मौजूद मीडिया समेत अधिकांश अधिकारियों ने भी सामान समेट लिया था.
पत्रकार प्रकाश चंद्र लोहुमी बताते हैं कि सब अपना सामान बांधकर वापस जाने की तैयारी में थे. अचानक उन्हें राजभवन से एक संदेश मिला. रविवार रात के साढ़े नौ बजे थे. लोहुमी बताते हैं कि वे जब राजभवन पहुंचे तो सामने इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली बैठे थे. करीब एक घंटे की बातचीत में तय हुआ कि समझौता होगा और अभी होगा. आनन फानन में समझौते के कागज तैयार किए गए. ऐसा बताया जाता है कि रात को 12 बजकर 40 मिनट पर भारत-पाक के बीच शिमला समझौता हो गया. समझौते के तुरंत बाद ही भारतीय पीएम इंदिरा गांधी वहां से खुद दस्तावेज लेकर चली गईं. इंदिरा गांधी उस समय मशोबरा के रिट्रीट में निवास कर रही थीं. रिट्रीट अब राष्ट्रपति निवास है. समझौते के बाद पस्त हो चुके भुट्टो हिमाचल भवन यानी अब के राजभवन में ही रहे. सुबह इंदिरा उनको विदाई देने हेलीपैड पहुंची, लेकिन कोई खास बात दोनों नेताओं में नहीं हुई.मीडिया कर्मियों ने दिया था साइन करने को पैनवरिष्ठ मीडियाकर्मी प्रकाश चंद्र लोहुमी बताते हैं कि सारा कुछ अप्रत्याशित था. राजभवन में जिस टेबल पर साइन होना था, वहां उस पर कोई कपड़ा भी नहीं था. यही नहीं, इंदिरा व भुट्टो के पास उस समय पैन भी नहीं थे. तब मीडिया वालों ने ही पैन दिए. बताया जाता है कि दस्तावेजों पर मुहर भी नहीं लगी थी. बाद में ही मुहर लगाई. तब आज की तरह मीडिया चैनल नहीं होते थे. सरकारी दूरदर्शन की टीम भी लेट पहुंची थी.समझौते के अनुसार पाकिस्तान से लिखवा लिया गया कि दोनों देश 17 दिसंबर, 1971 की स्थितियों के अनुसार अपनी जगह पर रहेंगे और उसी को एलओसी माना जाएगा. भारत ने पाकिस्तान से यह लिखवाने के बाद ये भी लिख दिया कि भविष्य में दोनों देश अपने झगड़े आपस में बिना किसी मध्यस्थता के मिल-बैठ कर सुलझाएंगे.