चंडीगढ़/दिल्ली :20 मार्च को संयुक्त राष्ट्र ने विश्व खुशहाली रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के मुताबिक भारत को दुनिया के सबसे खुशहाल राष्ट्रों में 140वां नंबर दिया गया है. संयोग देखिए कि यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है, जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में चुनावी बिगुल बज चुका है.
नेता हर बार की तरह, इस बार भी जनता से एक से बढ़कर एक वादे कर रहे हैं. काश देश के वोटर का मिज़ाज ऐसा होता कि उनमें नेताओं से यह पूछने की दिलचस्पी होती कि नेता जी ज़रा बताइए तो सही, इस रिपोर्ट के बारे में आपका ख़्याल है क्या?
इतिहास के पन्नों को अगर पलटा जाए, तो मालूम चल ही जाएगा कि 15 अगस्त 1947 को हम स्वतंत्र हुए, 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र हुए और 1952 में लोकतंत्र भी हो गए. यानी ये तय हो गया कि देश में सब कुछ संविधान और क़ानून के ज़रिए चलेगा.
इसे हम कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के रूप में भी समझ सकते हैं. हालांकि जब माननीय लोकसभा के सांसद ही ये कहें कि 2019 में होने वाले चुनाव आख़िरी चुनाव हैं और 2024 के बाद लोकतंत्र ही ख़त्म हो जाएगा, तो स्थिति कितनी शोचनीय और दयनीय हो चली है, इस बात का भी अंदाज़ा बाकायदा लगाया जा सकता है.
बहरहाल जब से चुनाव आयोग ने इलेक्शन की तारीख़ों का एलान किया है, तब से तमाम राजनीतिक दलों ने ज़ोर-आज़माइश भी शुरु कर दी है. हालांकि इसमें कुछ भी नया नहीं है, क्योंकि हमारे देश में चुनावी मौसम में अमुमन ऐसा होता रहा है,
जब सियासी दल साम-दाम-दंड-भेद अपनाते हुए किसी भी क़ीमत पर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं. हालांकि जैसे-जैसे मतदान का दिन नज़दीक आता है, वैसे-वैसे विचारधाराओं की जगह धर्म और जातियां लेने लगती हैं, जो किसी से छिपा नहीं है.
वैसे अगर बात की जाए दिल्ली से सटे हरियाणा की, तो हरियाणा में 2014 में जिस तरह से मोदी का जादू चला और प्रचंड बहुमत के साथ भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज की थी, उससे एक बात तो साफ हो गई थी कि कुर्सी कभी भी, किसी की भी हिल सकती है, गिर भी सकती है.
सन 47 से 2019 तक कितना बदला भारत लेकिन बीजेपी के ताल्लुक से अगर बात की जाए, तो मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में तो ऐसा होता नहीं दिख रहा है. क्योंकि जिस तरह से कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल के नेता भाजपा का दामन थाम रहे हैं, उससे यह साफ हो गया है कि आज की तारीख में भी बीजेपी की लोकप्रियता प्रदेश बरक़रार है.
बीते दिनों जिस तरह से मशहूर पैरालंपियन दीपा मलिक, इनेलो विधायक केहर सिहं रावत, हिसार के नलवा से इनेलो विधायक रणबीर गंगवा ने कमल के फूल को दबाने का फैसला कर लिया है, उससे यह तस्वीर खुद-ब-खुद सब कुछ बयान कर रही है.
इसके अलावा सियासी गलियारों में ऐसी खबरें आम हो चली हैं कि दिग्गज कांग्रेस नेता और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री कुलदीप सिंह बिश्नोई और मेवात इलाके के लोकप्रिय नेता और एमएलए चौधरी जाकिर हुसैन भी बीजेपी में जा सकते हैं.
इससे पहले जिस तरह से पांचों निगमों में भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने रिकॉर्ड जीत दर्ज की थी, उससे एक बार फिर से यह साफ हो गया कि बीजेपी आज भी शहरों मे पसंद की जाने वाली इकलौती पार्टी है.
साथ ही जिस तरह से जींद उपचुनाव में कांग्रेस के दिग्ग्ज नेता और राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले रणदीप सिंह सुरजेवाला और दिग्विजिय चौटाला के साथ-साथ तमाम उम्मीदवार धाराशायी हुए हैं, उसके बाद बीजेपी समर्थक और पदाधिकारी, बेलाग-लपेट यह कह रहें हैं कि 'मोदी का जादू है मितवा'
अब सवाल ये है कि 17वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव में ऐसा क्या ख़ास है, जो इसे पिछले इलेक्शन से अलग करता है, या यूं भी कहा जा सकता है कि क्या इस चुनाव में मुद्दों में कहीं-कुछ बदलाव नज़र आ रहा है, या इस बार भी वायदों पर ही सब कुछ सिमट कर रह जाएगा.
क्या इस बार लोग पहले के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतरी की उम्मीद कर सकते हैं? क्या इस चुनाव के बाद देश भर में रोज़गार के बाबत सड़कों पर उतर रहे नौजवानों की समस्याएं ख़त्म हो जाएंगी? क्या इस चुनाव के बाद औरतों में खून की कमी पूरी हो जाएगी?
क्या नक्सलवाद और आतंकवाद जैसी पेचीदा समस्याओं से देश को निजात मिल पाएगी? क्या इस चुनाव के बाद ग़रीबी, अशिक्षा जैसी बदहालियों से हमारा पीछा छूट जाएगा? क्या सरकारी कार्यालयों का जिक्र आते ही लोगों के माथे पर झुर्रियां नहीं पड़ेगी? क्या इस चुनाव में सियासी पार्टियां जात-पात को तरजीह नहीं देंगी?.
हम जनतांत्रिक देश हैं, नतीजतन ये सवाल एक ज़िम्मेदार नागरिक की हैसियत से वाजिब भी हैं और इलेक्शन को देखते हुए मुनासिब भी. इन सवालों के जवाब देने के लिए हर उस उम्मीदवार को अपने-आप को तैयार करना होगा, जो सांसद बनकर इस देश की तक़दीर बदल देना चाहता है. इससे एक फायदा तो ये होगा कि उनकी जवाबदेही तय हो पाएगी, दूसरा देशवासियों को करप्ट नेताओं की बजाए ऐसे लीडर मिल सकेंगे, जो सही मायनों में हमारा नुमाइंदगीकर सकें...
राजनीतिक विश्लेषक यह मानकर चलते हैं कि सन 47 में हमारे देश में रोटी-कपड़ा-मकान और बिजली-पानी-सड़क जैसी बुनियादी ज़रूरतों के नाम पर नेताओं ने चुनाव में दस्तक दी थी, लेकिन इस बात को कहना ग़लत नहीं होगा कि आज भी कहीं ना कहीं ये तमाम मुद्दे ना केवल प्रासंगिक हैं, बल्कि रुरल पॉलिटिक्स में पुरज़ोर तरीक़े से हावी हैं. ऐसे में सवाल यही रह जाता है कि 72 साल में सच में कुछ बदल सका है क्या, या वास्तव में लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव बनकर रह गया है?