चंडीगढ़: भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जनता को उनके अधिकार मिले, उन्हें न्याय मिले, इसके लिए जैसे प्रवाधान किए गए हैं उसकी तारीफ पूरी दुनिया में की जाती है. भारत की संसद, राज्यों की विधानसभाओं और न्यायालयों में इस लोकतंत्र को और कैसे मजबूत बनाया जाए, सुधार किया जाए, इस पर हमेशा चिंतन होता रहता है, ताकि देश के हर तबके को उसका हक सम्मान सहित मिले. ताकि देश में समानता का अधिकार हो और भ्रष्ट प्रकृति के लोगों के लिए दंड़ का प्रावधान हो. इसके लिए देश में कानून बनाने के लिए संसद है, कानून बनाने और उसके प्रभाव की चिंता करने वाले राजनेता हैं, उस कानून को लागू करने के लिए प्रशासन है. नियम तोड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए पुलिस है और दोषी को सजा देने के लिए न्यायालय है. इसी कड़ी में इस 'सिस्टम' को और प्रभावी करने के लिए हरियाणा में लोकायुक्त एक्ट 1998 में बना था.
'हरियाणा लोकायुक्त एक्ट' है क्या?
हरियाणा में साल 1998 में बंसी लाल सरकार में 'लोकायुक्त एक्ट 1998' बनाया गया. पूर्व लोकायुक्त जस्टिस प्रीतम पाल के मुताबिक पूर्व सीएम बंसीलाल की सरकार में गठित हुआ लोकपाल कानून भ्रष्टाचार पर प्रहार करने का सबसे मजबूत कानून था. क्योंकि उस कानून में लोकायुक्त को भ्रष्टाचार के किसी भी मामले की सूचना मिलने पर स्वयं कार्रवाई करने का अधिकार था. कानून में किसी भी सरकारी अधिकारी, सरकारी विभाग, निगम और अर्द्ध सरकारी विभाग या सरकार की तरफ से आर्थिक सहायता लेने वाले संस्थान भी लोकायुक्त के आदेश मानने को बाध्य थे.
लोकायुक्त किसी मामले में संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश करते तो उसे 3 महीने में लागू करना भी जरूरी होता था. अगर 3 महीने में लोकायुक्त के आदेश या निर्देश लागू नहीं होते तो संबंधित अधिकारी को लोकायुक्त में तलब भी किया जा सकता था. दोषी पाए जाने पर उन्हें सजा या पेनल्टी तक लगाई जा सकती थी.
2002 के संशोधन के बाद कमजोर हो गया एक्ट!
इसमें कोई संदेह नहीं कि 'हरियाणा लोकायुक्त एक्ट-1998' में जनता की भालाई के लिए बेहद मजबूत कानून साबित होने वाला था, लेकिन ये दुर्भाग्य है कि ये कानून वक्त के साथ अपनी ताकत खोता गया. साल 2002 में तत्कालीन सरकार 'दि हरियाणा लोकायुक्त अधिनियम, 2002' लेकर आई. इस संसोधन के अनुसार लोकपाल का सूओ-मोटो के अधिकार नहीं रहा. यानी अब लोकायुक्त के पास मंत्री और अधिकारी की बिना किसी की अनुमति से भ्रष्टाचार की जांच करने का अधिकार नहीं था.
चौटाला सरकार की तरफ से 2002 में बनाए गए हरियाणा लोकायुक्त एक्ट के अनुसार लोकायुक्त को खुद किसी भी मंत्री और अधिकारी के खिलाफ जांच करने का अधिकार नहीं है. मंत्री और अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत की जांच लोकायुक्त कानून के अनुसार मुख्यमंत्री की अनुमति से होगी. वहीं मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई जांच राज्यपाल की अनुमति से ही हो सकती है.
अब किसी मामले में लोकयुक्त के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेने वाले अधिकारी के खिलाफ खुद अवमानना के तहत कार्रवाई की ताकत भी हरियाणा लोकायुक्त के पास नहीं है.
अब लोकायुक्त के पास क्या अधिकार हैं?
अब लोकायुक्त लोगों की शिकायत सुन सकते हैं. किसी भी भ्रष्टाचार के मामले में सुनवाई कर सकते हैं, लेकिन केस पूरा होने के बाद सरकार से केवल रिकमंडेशन कर सकते हैं. खुद किसी भी मामले की सुनवाई पूरी होने पर कार्रवाई नहीं कर सकते.
दोबारा शक्तियां दिए जाने की मांग करते रहे हैं लोकायुक्त
'दि हरियाणा लोकायुक्त अधिनियम, 2002' के बाद हरियाणा में लोकायुक्त शक्तिविहीन हो गए. जिसके बाद हर नवनियुक्त लोकायुक्त समय-समय पर स्वयं संज्ञान लेने और भ्रष्टाचार के मामले में दोषियों को सजा देने के अधिकारों की मांग कर चुके हैं. हरियाणा के पूर्व लोकायुक्त जस्टिस प्रीतम पाल ने इस बारे में ईटीवी भारत से विस्तृत चर्चा की.
'शक्तियां छिन जाने से कोई गंभीरता से नहीं लेता'
रिटायर्ड जस्टिस प्रीतम पाल ने बताया कि अब लोकायुक्त के पास सुओ-मोटो और दोषी के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्तियां छिन जाने के बाद सिस्टम से लोकायुक्त की गंभीरता कम हुई है. सुनवाई के बाद सिर्फ सरकार को रिकमंडेशन दे सकते हैं, लेकिन कई मामलों में उनकी रिकमंडेशन को काफी माइल्ड तौर पर लिया जाता है. अगर वो किसी दोषी के खिलाफ सीबीआई जांच या सख्त कार्रवाई की बात करते हैं, तो शायद उस दोषी के खिलाफ पदोन्नती रोक देना या तबादला जैसी छोटी-मोटी कार्रवाई हो जाती है.
रिटायर्ड जस्टिस प्रीतम पाल ने इस बात को समझाने के लिए हरियाणा में 10 हजार 600 करोड़ का वैट रिफंड घोटाले के केस का उदाहरण दिया. उन्होंने कहा कि इस मामले में उन्होंने सुनवाइयां अपने समय में की थी, लेकिन बाद में उन्हें मीडिया के जरिए ही खबर मिली की कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही कोई कार्रवाई नहीं की. जिसके चलते शिकायत कर्ता को हाइकोर्ट जाना पड़ा.