रोहतक: हरियाणा में भाजपा ने सभी दस लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन रोहतक सीट की चर्चा सबसे ज्यादा की जा रही है. मतगणना के दिन भी यहां प्रशासन, प्रत्याशियों और उनके समर्थकों की सांसें आखिर तक अटकी रहीं. प्रदेश में अगर कहीं टक्कर दिखी तो वह सिर्फ रोहतक में. यहां शुक्रवार सुबह 4 बजे जाकर परिणाम घोषित किया गया जिसमें अरविंद शर्मा ने अपने पुराने साथी दीपेंद्र हुड्डा का किला आखिर धवस्त कर दिया था.
क्या हैं इस हार के कारण?
इस जीत के बाद भाजपा पूरी तरह से उत्साहित है लेकिन आखिर ये जीत मिली कैसे और हुड्डा के गढ़ में सेंध कैसे लगी. बेशक मोदी फैक्टर को नकारा नहीं जा सकता लेकिन मोदी लहर तो 2014 में भी थी तब भी दीपेंद्र अपना घर बचाने में कामयाब हो गए थे. दीपेंद्र की हार के कई कारण हैं जैसे कि बीजेपी की अचूक रणनीति, बीजेपी का गैर जाट प्रत्याशी को टिकट देना, कांग्रेस में आपसी मतभेद, बीजेपी के स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं का बढ़ चढ़कर चुनाव प्रचार-प्रसार में हिस्सा लेना.
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद रोहतक लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार दीपेंद्र हुड्डा ने भाजपा प्रत्याशी को 1 लाख 70 हजार से ज्यादा वोटों से हराकर यहां कांग्रेस का झंडा बुलंद किया था. इससे पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में भी दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने इनेलो के प्रत्याशी नफे सिंह राठी को करीब चाढ़े चार लाख वोटों से हराया था. दीपेंद्र के दादा रणबीर सिंह हुड्डा एक स्वतंत्रता सेनानी थे. आजादी के बाद वह तत्कालीन पंजाब सरकार में मंत्री भी रहे. दीपेंद्र के पिता भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी हरियाणा की सांपला सीट से चुनाव जीतकर 2 बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं.
पहली बार अपने दम पर जीतीं बीजेपी
भाजपा को जनसंघ के बैनर तले सिर्फ दो बार ही 1962 और 1971 में यहां से जीत हासिल हुई थी. उसके बाद से रोहतक सीट जीतने की भाजपा की तमाम कोशिशें विफल रही हैं. हालांकि, 1999 चुनाव में भाजपा और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के गठबंधन के बाद इनेलो प्रत्याशी कैप्टन इंदर सिंह यहां से जीतने में कामयाब रहे थे. उसके बाद रोहतक सीट कांग्रेस के ही कब्जे में रही है. जाट बाहुल्य सीट पर हुड्डा घराने की मजबूत पकड़ की वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां प्रचंड मोदी लहर फेल हो गई थी. मगर इस बार बीजेपी की अचूक रणनीति से कांग्रेस को इस इकलौती बची सीट पर भी हार झेलनी पड़ी.