फरीदाबाद: नेपाल की राजधानी काठमांडू से पश्मीना शॉल लेकर 35वें सूरजकुंड मेले में आए हस्तशिल्पकार तेज नारायण का बिहार से नेपाल तक का सफर बेहद दिलचस्प है. 10वीं में फेल होने के बाद परिवार के डर और कुछ करने की ललक ने उन्हें 1985 में काठमांडू पहुंच गए. वहां उन्होंने सिल्क का काम करना शुरू कर दिया. इस काम में उनका पूरा परिवार पहले से ही जुड़ा हुआ था.
उद्योग का रूप ले चुका है पश्मीना शॉल का काम- 40 साल पहले 10वीं में फेल होकर घर से भागकर नेपाल गए तेज नारायण ने कभी नहीं सोचा था कि जिस पश्मीना के काम शुरू कर रहे हैं. वह एक दिन बड़ा बिजनेस बन जाएगा. आज पश्मीना के उनके काम को एक उद्योग का रूप मिल चुका है. उनकी एक कंपनी है, जिसको उनकी बेटी पूजा संभाल रही हैं और वो भी साथ में काम कर रहे हैं. सिल्क के पुश्तैनी काम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने इसे पश्मीना उद्योग में बदल दिया है. यूरोपीय देशों में आज उनकी पश्मीना शॉल की भारी डिमांड है. जिससे वह सालाना लाखों रुपये की कमाई करते हैं.
मंगोलिया से मंगाए जाते हैं बकरी के बाल-शिल्पकार तेज नारायण बताते हैं कि उन्होंने करीब 27 साल पहले 1995 में पश्मीना शॉल बनाने का काम शुरू किया. नेपाली पश्मीना शॉल बनाने के लिए बकरी के बच्चे का बाल मंगोलिया से मंगाया जाता है. मंगोलिया में पहाड़ों पर पाई जाने वाली बकरियों की एक प्रजाति (अल्ताई माउंटेन) के नवजात बच्चों के गर्दन और कंधे के नीचे के बालों का प्रयोग किया जाता है. 50 ग्राम की पश्मीना शॉल बनाने के लिए करीब 17 बकरियों के बच्चों की गर्दन के बाल की जरूरत होती है. एक बकरी के बच्चे से लगभग 3 ग्राम बाल इकट्ठे होते हैं.