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Published : Nov 25, 2021, 4:11 AM IST

Updated : Nov 25, 2021, 5:24 AM IST

जो पुरुष न तो कर्म फलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, ऐसा मनुष्य समस्त द्वंद्वों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है. जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह भवबन्धन को पार कर मुक्त हो जाता है. काम-क्रोध से सर्वथा रहित, जीते हुए मन वाले और आत्मा को जानने वाले संन्यासियों के लिये शरीर के रहते हुए अथवा शरीर छूटने के बाद मोक्ष विद्यमान रहता है. जो स्थान ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, उसी स्थान पर कर्मयोगी भी पहुंचते हैं. कर्मयोग के बिना संन्यास सिद्ध होना कठिन है. मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त करता है. जो भक्ति भाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं. दिव्य भावनामृत युक्त मनुष्य यह जानता रहता है कि शारीरिक अंग-इन्द्रियां अपने-अपने विषयों में कार्यरत हैं और वह इन सबसे पृथक है. निश्चल भक्त शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल भगवान को अर्पित कर देता है. जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह सुखपूर्वक रहता है. शरीर का स्वामी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है. यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है. सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म का और न शुभ कर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान से ज्ञान ढंका हुआ है, उसी से सब जीव मोहित हो रहे हैं.
Last Updated : Nov 25, 2021, 5:24 AM IST

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