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Published : Nov 8, 2021, 4:19 AM IST

कर्म का स्थान अर्थात ये शरीर, कर्ता, विभिन्न इन्द्रियां, अनेक प्रकार की चेष्टाएं तथा परमात्मा-ये पांच कर्म के कारण हैं.यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए, उन्हें अवश्य सम्पन्न करना चाहिए. नि:संदेह यज्ञ, दान तथा तपस्या महात्माओं को भी शुद्ध बनाते हैं. निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए, यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का परित्याग कर देता है तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है. जब मनुष्य नियत कर्तव्य को करणीय मान कर करता है और समस्त भौतिक संगति तथा फल की आसक्ति को त्याग देता है तो उसका त्याग सात्विक कहलाता है. नि:संदेह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असम्भव है, लेकिन जो कर्म फल का परित्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी है. जो कर्म नियमित है और जो आसक्ति, राग व द्वेष से रहित कर्मफल की चाह के बिना किया जाता है, वह सात्विक कहलाता है. जो कार्य अपनी इच्छा पूर्ति के निमित्त प्रयास पूर्वक एवं मिथ्या अहंकार के भाव से किया जाता है, वह रजोगुणी कहा जाता है. जो कर्ता संग रहित, अहंकार रहित, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोक आदि विकारों से रहित है-वह सात्विक कहा जाता है. जो कर्ता कर्म के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी, सदैव ईर्ष्यालु, अपवित्र, हर्ष और शोक से युक्त है, वह राजसी कहा जाता है. जो कर्म शास्त्रों की अवहेलना करके परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है. जो कर्ता असावधान, अशिक्षित, अहंकारी, जिद्दी, उपकारी का अपमान करने वाला, आलसी, विषादी और कार्यों में विलम्ब करने वाला है, वह तामसी कहा जाता है.

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