ग्रेजुएशन फर्स्ट ईयर की छात्रा सोनिया सिंह को हाल ही में कुछ अजीब परिस्थितियों का उस समय सामना करना पड़ा जब कक्षा 9 से उनके क्लासमेट रहे एक दोस्त ने उनके सामने एक अजीब तरह की दोस्ती का प्रस्ताव रखा. दरअसल उनके दोस्त ने सोनिया से कहा कि चूंकि ना तो सोनिया का कोई बॉयफ्रेंड है और ना ही उनके दोस्त की कोई गर्लफ्रेंड, तो क्यों ना बिना कमिटमेंट वाली एक ऐसी दोस्ती की शुरुआत की जाए जहां उनकी दोस्ती तो बनी रहे लेकिन साथ ही वे लोग एक दूसरे को डेट भी कर सकें. सोनिया बताती है कि अपने दोस्त का यह प्रस्ताव सुनकर वह अजीब पशोपेश में फंस गई क्योंकि ना तो यह सीधी तरह प्रपोजल था और ना ही साधारण दोस्ती का प्रस्ताव.
सोनिया भले ही इस प्रस्ताव को सुनकर पशोपेश में पड़ गई हो लेकिन आज की युवा पीढ़ी में यह एक प्रचलित चलन है. जो आमतौर पर 'फ्रेंड्स विद बेनिफिट्स' के नाम से जाना जाता है. इसी नाम से कुछ सालों पहले अंग्रेजी की एक विदेशी फिल्म काफी प्रचलित हुई थी जहां दो दोस्त बिना किसी कमिटमेंट या रिश्ते में बंधे एक दूसरे को डेट करते हैं तथा इंटिमेट रिश्ते बनाते हैं.
कॉलेज और ऑफिस में आम है यह चलन
एम.बी.ए सेकंड सेमेस्टर के छात्र पारितोष सेनगुप्ता जो कि ऐसे रिश्ते के साक्षी रह चुके हैं बताते हैं कि आजकल ना सिर्फ कॉलेजों बल्कि कामकाजी लोगों के बीच भी यह चलन आम है. वह बताते हैं कि वे 2 साल तक इस तरह के रिश्ते में रहे हैं. हालांकि उनके बीच शारीरिक संबंध नहीं थे लेकिन एक दूसरे को गले लगाना, किस करना, एक दूसरे का हाथ पकड़ना और डेट या ड्राइव पर जाना उन लोगों में आम था. 2 साल के बाद उनकी दोस्त एक सीरियस रिलेशनशिप में आगे बढ़ गई वही पारितोष फिलहाल अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे रहे हैं. पारितोष बताते हैं कि इस रिश्ते की शुरुआत उन्होंने तथा उनकी दोस्त ने बगैर किसी बंधन में बंधे जीवन को इन्जॉय करने के उद्देश्य से की थी. इसके अलावा कहीं न कहीं वे दोनों ही चाहते थे की यह रिश्ता उनके जीवन में, उनकी पढ़ाई में तथा दूसरे रिश्तों में बाधा ना बने.
वहीं मुंबई में नौकरी कर रही परिजाद मानती हैं कि कोई भी गंभीर रिश्ता समय और कमिटमेंट मांगता है, लेकिन आज की भागती दौड़ती जिंदगी में ऐसे रिश्तों के लिए समय निकालना थोड़ा मुश्किल हो जाता है. लेकिन यह भी सच है कि आज के समय में विशेष तौर पर युवाओं को अपनी जिंदगी में रस, रोमांच और रोमांससभी चाहिए होता है. ऐसे में बिना कमीटमेंट और जिम्मेदारी वाले इस प्रकार के रिश्ते युवा पीढ़ी को ज्यादा आकर्षित करते हैं. वह बताती हैं कि ऑफिस में सहकर्मियों के बीच में भी ऐसे रिश्ते बन जाते हैं जहां वे कभी वीकेंड पर एक दूसरे का साथ इंजॉय करते हैं तो कभी टेक्सटिंग यानी मैसेजेस के माध्यम से अपनी भावनाओं को रोमांचित करने का प्रयास करते हैं.
क्या सही है यह रिश्ता
काउंसलर, पूर्व व्याख्याता तथा मनोवैज्ञानिक डॉक्टर रेणुका शर्मा (पी.एच.डी) बताती हैं कि ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के रिश्ते कोई नया चलन है,लेकिन पहले ज्यादातर मेट्रो शहरों के दफ्तरों में देखे जाने वाले इस चलन का युवा पीढ़ी में प्रचलन बढ़ना वर्तमान समय में नए प्रकार के आधुनिक रिश्तों का उदाहरण बनने लगा है. बगैर किसी रिश्ते में बंधे डेट पर जाना, एक दूसरे के साथ समय बिताना, रिश्तों में शारीरिक अंतरंगता का बढ़ना उस मानसिकता को जताता है जहां युवा जिम्मेदारियों का बोझ लिए बिना अपने जीवन को इंजॉय करना चाहते हैं. यह चलन सिर्फ लड़कों में ही प्रचलित नहीं है बल्कि लड़कियां भी इस तरह के रिश्तो को पसंद करती है. इस तरह के रिश्तों को माता-पिता या समाज की स्वीकार्यता की जरूरत नहीं होती है क्योंकि न तो इनका कोई भविष्य होता है और ना ही इनमें कोई जिम्मेदारी या कमिटमेंट होता है. साथ ही दोनों साथियों के पास बेहतर विकल्प तलाशने का मौका भी होता है.
जरूरी हैं सीमाएं
कई बार इस तरह के रिश्ते भावनात्मक चोट भी दे जाते हैं. डॉक्टर रेणुका शर्मा बताती हैं कि कई बार एक दूसरे के साथ समय बिताते-बिताते कोई एक साथी जब दूसरे साथी के लिए भावनाएं रखने लगता है, वही दूसरे साथी के लिए यह रिश्ता सिर्फ एक कैज़ुअल रिश्ता ही होता है तो ना सिर्फ आपसी रिश्तों में कड़वाहट या दुर्भावना आ सकती है बल्कि दूसरे साथी की भावनाएं भी आहत हो सकती हैं, जो कहीं ना कहीं उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती हैं. ऐसी परिसतिथ्यों कई बार शारीरिक हिंसा या उत्पीड़न का कारण भी बन सकती हैं.
इस तरह के रिश्ते दोनों दोस्तों के निजी जीवन को प्रभावित ना करें इसलिए बहुत जरूरी है कि रिश्ते में सीमाएं निर्धारित की जाए. दोनों के बीच अंतरंगता कितनी हो, यदि दो लोगों के बीच शारीरिक रिश्ते हो तो वह पूरी तरह से सुरक्षित हो तथा यह रिश्ता दोनों में से किसी एक व्यक्ति के भी मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित ना करें इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना जरूरी है.
जरूरी है परिवार में ऐसे मुद्दों पर चर्चा
डॉक्टर रेणुका बताती है कि वर्तमान पीढ़ी के लिए सही और गलत की परिभाषा पहले के मुकाबले काफी ज्यादा बदल चुकी है. ऐसे में बहुत जरूरी है कि उनके शारीरिक, भावनात्मक तथा सामाजिक स्वास्थ्य के लिए क्या सही है और क्या गलत, इस बारे में परिवार में खुलकर बात की जाय. जब घर के बच्चे बड़ों के साथ बैठकर किसी भी चीज की अच्छाई और बुराई के बारे में खुल कर बात करते हैं तो वह उन बातों को बेहतर तरीके से समझ पाते हैं और जो बातें माता-पिता बच्चों को डांट कर, प्यार से या तेज बोलकर नहीं समझा पाते हैं उन बातों को न सिर्फ समझ जाते हैं बल्कि उन्हे जीवन में अपनाने भी लगते हैं.
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