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अलविदा: जब सब खामोश रहे, तब हिंदी के लिए बुलंद हुई आलोचना की ये 'नामवरी' आवाज - हिंदी साहित्याकार

नई दिल्ली: जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है. और नामवर सिंह चले गए. हिंदी के शिखर पुरुष, हिंदी के श्लाका पुरुष, वर्तमान हिंदी के सबसे बड़़े साहित्यकार. 'दूसरी परंपरा की खोज' में निकले हिंदी के सबसे बड़े आलोचक ने एम्स में मंगलवार रात 11 बजकर 51 मिनट पर अंतिम सांस ली. उनके जाने से हिंदी गमगीन है. आइए आपको बताते हैं, नामवर होने के मायने....

जब सब खामोश रहे, तब हिंदी के लिए बुलंद हुई आलोचना की ये 'नामवरी' आवाज

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Published : Feb 20, 2019, 8:07 PM IST

मौत भी नामवर सिंह के पास दिन में नहीं आई. नामवर के आभामंडल से इतनी डरी की चुपके से रात को हमला किया. नामवर की टूटन, उनका लेखकीय दर्द और पीड़ा बहुत पहले से दिखने लगी थी. उनकी एक कविता कुछ ऐसे है-

नभ के नीले सूनेपन में, हैं टूट रहे बरसे बादर
जानें क्यों टूट रहा है तन! वन में चिड़ियों के चलने से
हैं टूट रहे पत्ते चरमर, जानें क्यों टूट रहा है मन!

28 जुलाई, 1926 को तबके बनारस जिले के जीयनपुर गांव में हिंदी के प्रकाशस्तंभ नामवर सिंह का जन्म हुआ. नामवर सिंह ने लेखन की शुरुआत कविता से की. 1941 में उनकी पहली कविता 'क्षत्रियमित्र' पत्रिका में छपी.

'अफसोस तो यही है कि अफसोस भी नहीं'
आज नामवर सिंह की 'जीवनी' लिखने के बजाय उन वाकयों का जिक्र करना ज्यादा बेहतर रहेगा जो नामवर होने के मायने समझाते हैं.

करीब 9 साल पहले एक साहित्यिक पत्रिका ने 'नामवर सिंह विशेषांक' निकाला. उस पत्रिका ने उस वक्त नामवर सिंह का साक्षात्कार किया था. नामवर ने बहुत सारे सवालों के जवाब एक लाइन में दिए. कुछ जवाब हम आपको पढ़वाते हैं जोकि सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं.

सवाल जितने गंभीर होते थे नामवर के जवाब उतने ही आसान. जैसे- नामवर से पूछा गया- प्रेम आपकी दृष्टि में ? नामवर बोले- प्रेमा पुमर्थो महान. सवाल- ऐसा काम जिसे करने का अफसोस हो ? नामवर बोले- अफसोस तो यही है कि अफसोस भी नहीं. वह अकेली पुस्तक जिसे आप निर्वासन में अपने साथ रखते. नामवर बोले- रामचरित मानस.

यही थे 'मार्क्सवादी' नामवर सिंह, जो निर्वासन के दिनों में अपने साथ रामचरित मानस रखने की बात कहते थे. हिंदी के कई बड़े साहित्यकार उन्हें मार्क्सवादी कहते हैं. नामवर सिंह भी खुद को मार्क्स के विचारों के ज्यादा करीब मानते थे. नामवर सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के तरफ से लोकसभा का चुनाव भी लड़े, जो हार गए थे.

पीएम मोदी ने दी श्रद्धांजलि
नामवर सिंह का कद वर्तमान हिंदी साहित्य में कितना ऊंचा है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि उनकी मौत पर देश के प्रधानमंत्री ने ट्वीट करके श्रद्धांजलि दी.

पीएम मोदी के अलावा गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी श्रद्धांजलि दी.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी ट्वीट करके नामवर सिंह को नमन किया.

नामवर सिंह की एक कविता की पंक्तियां इस वक्त सोशल मीडिया के समंदर में हिलोरें खा रही हैं. उसी कविता का एक अंश है-


'बुरा ज़माना, बुरा ज़माना, बुरा ज़माना
लेकिन मुझे ज़माने से कुछ भी तो शिकवा नहीं
नहीं है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना
ऐसे युग में जिसमें ऐसी ही बही हवा.'

'त्यागपत्र' में जैनेंद्र कुमार लिखते हैं, 'झूठा बनकर नामवर होने में क्या धरा है? ओह! वैसी नामवरी निष्फल है, व्यर्थ है, निरी रेत है. आत्मा को खोकर साम्राज्य पाया तो क्या पाया? वह रत्न को गंवाकर धूल का ढेर पाने से भी कमतर है.'

नामवर ने आलोचना करके 'साम्राज्य' पाया. हिंदी में खाली पड़ी आलोचना की जगह को ऐसा भरा कि उनके चिन्ह हमेशा मौजूद रहेंगा. आह,नामवर के भाषण. स्टेज पर पहुंचते तो फिर 'नामवरी' दिखने ही लगती थी. जहां नामवर होते वहां कोई और नहीं.

दिल्ली में बनारस ढूंढते रहे नामवर
खाटी बनारसी नामवर सिंह जब दिल्ली आए तो आ ही गए. जेएनयू उनका कार्यस्थल बन गया. वो यहीं बस गए. इसके बाद भी वो दिल्ली में भी बनारस ढूंढते रहे. खान-पान, पहनावा और बातचीत में जैसे वो उसी काशी को मिस कर रहे होते थे.

'गोदान' पर उनकी टिप्पणी
6 नवंबर, 2005 को बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में प्रेमचंद के गोदान पर चर्चा करते हुए जो उन्होंने कहा, 'उपन्यास अगर पाठ ही है, तो मर जायेगा. गोदान में गुठली है. 'रस' न हो तो कालजयी कृति हो ही नहीं सकता. युगों-युगों तक गोदान पढ़ा जाता रहेगा तो 'रस' के कारण, कलाकृति के कारण. क्योंकि वो वर्णन इतिहास, समाजशास्त्र में भी मिल जाएगा. बंधी-बंधायी विचारधारा के आधार पर न मूल्यांकन किया जाए. रचनाकार की कृति में जो राग बना है, उसको देखें. गोदान का यही बड़प्पन है. सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई एमएल वाले अपनी-अपनी विचारधारा ढूंढ़े? गोदान विचारधारा को अतिक्रमित करता है. उसके मर्म को जानने के लिए विचारधाराओं के चक्कर में नहीं पडऩा चाहिए.

अपने अंतिम दिनों में नामवर सिंह साल में एक दो बार किसी समारोह में दिख जाते थे. लोगों की भीड़ लग जाती थी. हर कोई नामवर सिंह को एक बार देख लेना चाहता था. हर कोई उनके साथ एक सेल्फी ले लेना चाहता था. नामवर सिंह हिंदी के ब्रांड एंबेसडर थे. नामवर सिंह हिंदी प्रेमियों के लिए बरगद जैसे थे. हिंदी के वर्तमान साहित्याकारों, कवियों और लेखकों के अभिभावक थे. उनके नीचे कितने ही लोग कवि, आलोचक और लेखक बन गए.

हिंदी प्रेमियों ने दी श्रद्धांजलि
नामवर सिंह के जाने पर जाने-माने कवि डॉक्टर कुमार विश्वास ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है, 'हिंदी आलोचना के शलाका-पुरुष, हमारी ज्ञान-ऋषि परपंरा के युगीन कुलाधिपति, आदरणीय गुरुप्रवर डॉ नामवर सिंह जी के निधन का समाचार एक अव्यक्त रिक्तता के वास्तविक आभास जैसा है ! ईश्वर पूज्य आचार्यश्री को अपनी कृपाछाया में शान्तिपूर्ण स्थान प्रदान करे !'

वहीं, हिंदी के साहित्यकार और बड़े पत्रकार ओम थानवी ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी है. उन्होंने अपने ट्वीटर अकाउंट पर लिखा, 'हिंदी में फिर सन्नाटे की ख़बर. नायाब आलोचक, साहित्य में दूसरी परम्परा के अन्वेषी, डॉ. नामवर सिंह नहीं रहे. मंगलवार को आधी रात होते-न-होते उन्होंने आख़िरी सांस ली. कुछ समय से एम्स में भरती थे. 26 जुलाई को वे 93 के हो जाते. उन्होंने अच्छा जीवन जिया, बड़ा जीवन पाया. नतशीश नमन.'

हिंदी पर इस वक्त वज्रपात-सा हो गया है. पिछले करीब 16 महीनों के छोटे अंतराल में हिंदी के कई बड़े दिग्गज हिंदुस्तान को अलविदा कह गए. उनमें कुछ बहुत बड़े नाम भी शामिल हैं. जैसे- कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विष्णु खरे, कृष्णा सोबती. हिंदी के क्षितिज पर उनके जाने से जो जगह खाली हुई है उसका भरना करीब-करीब नामुमकिन ही है.

हिन्दी साहित्य के शिखर पुरुष नामवर सिंह जी के निधन से गहरा दुख हुआ है। उन्होंने आलोचना के माध्यम से हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा दी। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ करने वाले नामवर जी का जाना साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति दे और परिजनों को संबल प्रदान करे।

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