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प्रकृति, पर्यावरण और आस्था का संगम है छठ का पर्व - Worship of goddess Chhathi

छठ पर्व की शुरुआत कार्तिक शुक्ल दिवाली की चतुर्थी को नहाए-खाय से हो जाती है. अगले दिन खरना फिर षष्ठी शाम और सप्तमी सुबह सूर्य देव को अर्घ्य देकर छठ पूजा की समाप्ति हो जाती है. इस पर्व की पूजा मन्दिरों में न होकर नदी, तालाब के किनारे प्रकृति की गोद में होती है.

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Published : Oct 28, 2022, 12:31 PM IST

नई दिल्ली:पूर्वांचल व बिहार में छठ पूजा कृषि सभ्यता का महापर्व माना जाता है. इस समय खेतों में लहलहाते धान की फसल होती है. सूर्य ऊर्जा का अच्छा श्रोत माना है और इस पर्व में सूर्य देवता की पूजा होती है. छठ पर्व आने के महीनों पहले लोग नहरों, तालाबों की साफ़-सफाई में जुट जाते हैं. पूजा के दिन घाट के किनारे घंटों बैठकर पूजा अर्चना कर डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य देते हैं. ये पूजा विभिन्न घाटों पर सामूहिक रूप से होती हैं. यहाँ ऊँच-नीच, छोटे-बड़े का भेदभाव मिट जाता है.

दिल्ली केसंगम विहार में रहने वाली रेणु देवी बीते 26 साल से छठी मइया की पूजा करती आ रही हैं. बताती हैं कि इससे हर संकट से मुक्ति मिलती है. घर में खुशहाली और समृद्धि आती है. इनकी ही तरह देश की लाखों महिलाओं की आस्था का महापर्व छठ बिहार, यूपी, झारखंड समेत पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है. शुक्रवार से नहाय-खाय के साथ यह चार दिवसीय पर्व शुरू होने जा रहा है. रेणु देवी बिहार समस्तीपुर की रहने वाली हैं, पिछले कई वर्षों से दिल्ली में अपने बेटे-बहु के साथ रहती हैं. छठ मइया के गीत गाने के दौरान वह बोलीं कि हम लोग कहीं भी रहें परंतु छठ पर हमारा पूरा परिवार एक साथ रहता है. हम जब गाँव में रहते थे तो महीनों पहले घाटों की सफाई शुरू कर देते थे. रंगाई-पुताई करके अच्छे से सब अपना-अपना पूजा का स्थल सजाते थे. दिल्ली में इतना संभव नहीं हो पाता है.

दिल्ली में छठ का त्योहार
बदरपुर की रहने वाली 34 वर्षीय सरिता चौबे कहती हैं कि बचपन में शौक से माँ के साथ हम घाट पर जाते थे और खुब आनंद के साथ त्योहार मनाया करते थे. अब शादी के बाद खुद व्रत रखने लगे हैं. इससे बड़ा पर्व हमारे लिए कोई नहीं है. इस व्रत को करने से हर संकट खत्म हो जाता है. पर्व का प्रकृति से गहरा रिश्ता छठ पर्व की शुरुआत कार्तिक शुक्ल दिवाली की चतुर्थी को नहाय-खाय से हो जाती है. अगले दिन खरना फिर षष्ठी शाम और सप्तमी सुबह सूर्य देव को अर्घ्य देकर छठ पूजा की समाप्ति हो जाती है. महिलाएं करीब 36 घंटे निर्जला व्रत परिवार की खुशहाली के लिए रखती हैं. सप्तमी सुबह सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही पानी पीती हैं. इस पर्व का प्रकृति से गहरा रिश्ता है क्योंकि व्रत से लेकर पूजा तक जितनी सामग्री इस्तेमाल की जाती है सब प्रकृति से जुड़ी है. इस पर्व की पूजा मन्दिरों में न होकर नदी, तालाब के किनारे प्रकृति की गोद में होती है. फल और पूजा की सामग्री रखने के लिए बांस की डलिया या सूप का उपयोग होता है. पूजा में महिलाएं ठेकुआ, मालपुआ, खीर, खजूर, चावल के लड्डू, चूरा और अनेकों किस्म के फलों का उपयोग करती हैं. पर्व के केंद्र में कृषि और ग्रामीण किसानभारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र, पूसा के प्रिंसिपल डॉ पीके सिंह बताते हैं कि छठ महापर्व के केन्द्र में कृषि, मिट्टी और किसान हैं. धरती से उपजी हुई हर फसल और हर फल-सब्जी इसका प्रसाद है. मिट्टी से बने चूल्हे पर और मिट्टी के बर्तन में नहाय-खाय, खरना और पूजा का प्रसाद बनाया जाता है. बांस से बने सूप में पूजन सामग्री रखकर अर्घ्य दिया जाता है. एक जगह का सामान दूसरी जगह भेजा जाता है.

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डॉ सिंह बताते हैं कि आज पूरी दुनिया में जल और पर्यावरण संरक्षण पर जोर दिया जा रहा है. बिहार ने सदियों पूर्व इसके महत्व को समझा और यही कारण है कि छठ पर्व पर नदी घाटों और जलाशयों की सफाई की जाती है तथा जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. सूर्य की छाया पानी में साफ-साफ दिखाई पड़नी चाहिए. संदेश साफ है कि जल को इतना निर्मल और स्वच्छ बनाइए कि उसमें सूर्य की किरणें भी प्रतिबिंबित हो उठे. मौजूदा दौर में जल प्रदूषण प्राणियों के जीवन के लिए एक बड़ा खतरा माना जा रहा है. छठ सूर्य की पराबैगनी किरणों को अवशोषित कर उसके हानिकारक प्रभावों से बचाती है. वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को धरती की सतह पर सूर्य की हानिकारक पराबैगनी किरणें मानक से अधिक मात्रा में टकराती हैं. लोग जल में खड़े होकर जब सूर्य को अर्घ्य देते हैं तो वे किरणें अवशोषित होकर आक्सीजन में परिणत हो जाती हैं, जिससे लोग उन किरणों के कुप्रभावों से बचते हैं.

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