नई दिल्ली: राजधानी दिल्ली में जब विधानसभा का गठन हुआ तब से लेकर वर्ष 2013 तक राजनीति दो ही दलों के बीच होती रही. लेकिन इन दो दलों की राजनीति खत्म कर वर्ष 2013 में जिस तरह आम आदमी पार्टी अस्तित्व में आई और सरकार बनाने में सफल रही तब कांग्रेस का वोट बैंक सबसे तेजी से खिसक गया. छह साल की देरी से ही सही पार्टी के खिसके हुए वोट बैंक को वापिस लाने में दोबारा शीला ही सफल रहीं.
7 में से 5 सीटों पर दूसरे नंबर थी कांग्रेस
करीब दो माह पहले संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली में शीला दीक्षित के नेतृत्व में ही कांग्रेस मैदान में उतरी थी. शीला दीक्षित की अगुवाई का ही असर था कि कांग्रेस दिल्ली में अपना खोया हुआ वोट बैंक फिर से साध सकी. दिल्ली की सातों सीटों में से कांग्रेस किसी भी सीट पर भले ही जीत दर्ज नहीं कर सकी थी, लेकिन प्रदेश कांग्रेस हार कर जीतने में कामयाब रही थी. प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस के वोट फीसद में तो इजाफा हुआ ही था साथ ही अपनी प्रतिद्वंदी आम आदमी पार्टी को भी शिकस्त देने में कामयाब रही थी. आलम यह रहा कि केंद्र में भाजपा और दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार होने के बावजूद कांग्रेस 7 में से 5 सीटों पर दूसरे नंबर पर आने में भी सफल रही थी.
शीला दीक्षित की अंतिम यात्रा की तस्वीरें वोट फीसद में गजब का हुआ इजाफा
हाल ही में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी को मिले वोट फीसद की बात करें तो भाजपा को लोकसभा चुनाव में 56.6 फीसद और कांग्रेस को 22.4 और आम आदमी पार्टी को 18.2 फीसद वोट मिला था. जबकि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 46 आम आदमी पार्टी को 32 और कांग्रेस को 15 फीसद वोट मिले थे. चुनाव परिणाम में आप का वोट फीसद 32 से घटकर 18 पर आ गया. जबकि कांग्रेस का वोट फीसद से बढ़कर 22.4 फीसद पर पहुंच गया.
यही वजह है कि कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दिल्ली विधानसभा चुनाव में सफलता की राह नजर आने लगी थी. पार्टी सूत्रों का तो यहां तक कहना था कि लोकसभा चुनाव में हार के बावजूद पार्टी विधानसभा में भी शीला को ही चेहरा बनाकर पेश कर सकती थी. शीला पर कांग्रेस नेतृत्व चाहे वह सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका वाड्रा सभी को उन पर भरोसा था. यह भरोसा ही था जो गत जनवरी माह में उन्हें 81 साल की उम्र में भी प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी गई थी.
'आप' से गठबंधन के खिलाफ रही थीं शीला
लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी से गठबंधन को लेकर भी पार्टी ने शीला की ही बात मानी. गठबंधन नहीं करके उनके नेतृत्व में अकेले ही चुनाव लड़ने का फैसला लिया. यहां तक की पार्टी में गुटबाजी के मसले पर भी पार्टी नेतृत्व ने शीला के पक्ष को ही हमेशा प्रमुखता दी.