नई दिल्ली:प्रजा फाउंडेशन ने गुरुवार को दिल्ली में पुलिस व कानून व्यवस्था की स्थिति, 2020 पर अपनी रिपोर्ट जारी की है. यह रिपोर्ट दिल्ली शहर में पुलिस संस्था के कार्य में सुधार लाने के लिए, पुलिस और कानून व्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में पूर्ण बदलाव की आवश्यकता को दर्शाता करता है.
दिल्ली पुलिस को लेकर प्रजा फाउंडेशन ने जारी की रिपोर्ट पुलिस और कानून व्यवस्था, अतिकार्यित पुलिस कर्मियों और अधिक बोझ से जूझती न्यायपालिका एक निरंतर जाल में फंस गई है, जिस कारण से जनता का विश्वास इन संस्थानों पर से उठ गया है. इस कारण, अपराध के मामलों की शिकायत दर्ज करने में गिरावट देखी जा सकती है. यह एक बहुत खतरनाक स्थिति है, जहां देश में सुरक्षा और व्यवस्था को बनाए रखने वाली संस्थागत तंत्र टूट सकते हैं. इसलिए इस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है.
केवल 16 फीसदी मामलों में दर्ज की गई चार्जशीट
यह स्पष्ट रूप से इस तथ्य में देखा गया कि 2019 में आईपीसी के अंतर्गत जांच किए गए कुल मामलों में (3,10,983) केवल 16% मामलों में चार्जशीट दर्ज की गई. इसके अलावा 2019 में हुए महिलाओं के खिलाफ अपराध के 58% मामले और बच्चों के खिलाफ अपराध के 55% मामलों में जांच पूरी नहीं हुई थी. जांच में देरी के कारण विलंबित सुनवाई और फलस्वरूप न्याय में देरी होती है.
2019 में दिल्ली की अदालतों में जिन 2,92,647 आईपीसी मामलों पर सुनवाई होनी थी, उनमें से केवल 10% मामलों में ही फैसला दिया गया. सही जांच-पड़ताल का न होना कम सजा में परिलक्षित होती है. महिलाओं के खिलाफ अपराध के 59% मामलों और बच्चों के खिलाफ अपराध के 38% मामलों को 2019 में बरी या खारिज किया गया.
1000 से ज्यादा दर्ज होते हैं पॉक्सो एक्ट के मामले
भारत में अपराध के आंकड़ों से पता चलता है कि जहां सालाना दिल्ली में पॉक्सो के तहत बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों के 1000+ मामले दर्ज होते हैं. वहीं पॉक्सो अदालतों में 10% से भी कम मामलों की सुनवाई हुई और फैसले दिए गए हैं. 2019 में दिल्ली में पॉक्सो के तहत 1,719 बाल यौन शोषण के मामले (969 बलात्कार, 604 यौन हमला, 90 अप्राकृतिक अपराध, 50 यौन उत्पीड़न) दर्ज किए गए थे. उसी वर्ष पॉक्सो अदालतों ने सिर्फ 118 मामलों को न्याय निर्णीत किया.
इसके अलावा, इनमें से केवल 25% निर्णय एक वर्ष के भीतर (जैसा कि अधिनियम के लिए आवश्यक है) सुनाए गए थे. यह इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि सिर्फ अतिरिक्त अदालतों या कानून में प्रावधानों की स्थापना से तब तक फायदा नहीं होगा, जब तक कि पूरी प्रक्रिया सुव्यवस्थित न हो जाए और देरी के कारणों का विश्लेषण कर समय पर ठीक नहीं किया जाए.