नई दिल्ली: आजकल के तकनीकी दौर में इलेट्रॉनिक गैजेट्स ने हर किसी को अपना गुलाम बना लिया है. मोबाइल, टैब, लैपटॉप और कंप्यूटर जैसे गैजेट्स में से मोबाइल ने लगभग हर पीढ़ी को जकड़ लिया है. इसके इस्तेमाल का सबसे अधिक दुष्परिणाम एक से पांच साल तक के बच्चों पर देखने को मिल रहा है. कोरोना महामारी के दौरान जब हर किसी ने खुद को घरों में कैद कर लिया था, उस वक्त बच्चों का स्क्रीन टाइम काफी हद तक बढ़ गया था. बच्चों को बाहर खेलने की मनाही थी.
बच्चों को व्यस्त रखने के लिए माता-पिता अक्सर उनके हाथ में फोन थमा दिया करते थे या फिर उन्हें टीवी के सामने बिठा देते थे. इसका दुष्प्रभाव अब सामने आ रहे हैं. दुर्भाग्य से अब बच्चों में कई तरह की बीमारियां देखने को मिल रही हैं. जैसे आँखे कमजोर होना, सोल्डर जाम, स्पीच प्रॉब्लम्स आदि. ऐसे में अब माता पिता इस बात को लेकर चिंतित हैं कि किस तरह बच्चों से स्क्रीन टाइम को कम किया जाए ?
'ETV भारत' ने दिल्ली के करोलबाग स्थित सर गंगा राम अस्पताल के चाइल्ड स्पेशलिस्ट और सीनियर कंसलटेंट डॉ धीरेन गुप्ता से खास बातचीत की. उन्होंने बताया कि स्क्रीन टाइम बढ़ने से बच्चों की आंखों की रोशनी कमजोर हो गई है. खास तौर पर जब बच्चे मोबाइल या टीवी देखते हैं तो वे अपनी पलकों को सामान्य से कम बार झपकाते हैं. इसका सीधा असर आंखों से जुड़ी म्यूकस मेम्ब्रेन पर पड़ता है. इसके कारण बच्चों को धुंधला दिखने लगता है. आंखों की नमी कम हो जाती है, जिससे बच्चों के सिर में दर्द भी शुरू हो जाता है और बच्चे चिड़चिड़े होने लगते हैं.
कौन-कौन सी बीमारियों की आशंका?:डॉक्टर धीरेन गुप्ता ने बताया कि स्क्रीन टाइम बढ़ने से बच्चों में नींद न आना, गर्दन में दर्द, आँखों का कमजोर होना, चिड़चिड़ापन, तनाव व मानसिक व शारीरिक विकास में कमी जैसी समस्याएं देखने को मिल रही हैं. दो साल की उम्र वाले बच्चों में बोलने की शैली का विकास शुरू होता है. ज्यादा देर तक मोबाइल देखने वाले बच्चों में भाषा शैली का विकास भी बहुत देर से होता हैं. कुुल मिलाकर बच्चों के लिए ज्यादा देर तक मोबाइल या टीवी देखना बहुत घातक साबित हो रहा है.
कितना होना चाहिए स्क्रीन टाइम?:इस साल की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परीक्षा पर चर्चा के दौरान बच्चों के छह घंटे स्क्रीन टाइम पर चिंता जाहिर की थी. वहीं डॉक्टर ने बच्चों में बढ़ते मायोपिया (दूर की चीजें साफ न दिखना) की एक वजह बढ़ता स्क्रीन टाइम बताया है. उस समय डॉक्टरों ने चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि यही स्थिति रही तो 2050 तक 40 से 45 फीसदी बच्चे मायोपिया के शिकार हो जाएंगे.