नई दिल्ली: दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर योगेश सिंह ने कहा कि संस्कृति को सहेजना बहुत मुश्किल काम है. वह प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले में प्रकाशक “किताब वाले” के स्टाल पर अनूप लाठर द्वारा लिखित पुस्तक “काल और ताल” के विमोचन अवसर पर बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे. इस अवसर पर उनके साथ पुस्तक के लेखक अनूप लाठर, प्रो. एसके सलूजा, दिल्ली विश्वविद्यालय, दक्षिणी परिसर के निदेशक प्रो. प्रकाश सिंह, अंबेडकर विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. अनु सिंह लाठर, पुस्तक के प्रकाशक प्रशांत जैन, डीयू के रजिस्ट्रार डॉ. विकास गुप्ता सहित अन्य लोग मौजूद रहे.
इस दौरान प्रो. योगेश सिंह ने अपने संबोधन में कहा कि यह पुस्तक एक धरोहर है, जिसे सहेजने में अनूप लाठर, एसके सलूजा और प्रशांत जैन ने जो सराहनीय काम किया वह काबिले तारीफ है. उन्होंने कहा कि संस्कृति को सहेजने के लिए किताबों से बढ़ कर कोई रास्ता नहीं हो सकता. उन्होंने कहा कि उत्तर-पश्चिमी भारत ने सदियों से इतने आक्रमणों को झेला कि यहाँ का अधिकतर इतिहास विलुप्त सा हो गया. ऐसे में जो थोड़ी बहुत संस्कृति बची है उसे अनूप लाठर और एसके सलूजा ने इस पुस्तक के माध्यम से सहेज कर बड़ा काम किया है.
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कहा कि इतिहास को सहेजना बड़ी बात है, लेकिन पुस्तकों में विचारों को सहेजने से पहले इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि विचार कहीं खतरनाक न हों. इसलिए पुस्तकें सही लिखी जानी चाहिएं. कहा कि लेखकों ने इस पुस्तक में हरियाणवी लोक संस्कृति को बहुत ही सहज और सटीक तरीके से सहेजने का काम किया है. इसमें जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों और अवसरों को पर प्रचलित गीतों को सहेजने का काम किया गया है. इतना ही नहीं, संगीत की बारीकियों को समझने के लिए इन गीतों की नोटेशन भी साथ साथ दी गई है.
कुलपति ने कहा कि यह कार्य आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुत ही सहायक होगा. आने वाले 100-150 सालों बाद बच्चे इस पुस्तक के माध्यम से ही समझेंगे कि इन गीतों को कैसे गाया जाता था. कहा कि पुस्तकें राष्ट्र की संस्कृति और आत्मा को सहेजने का काम करती हैं, इसलिए पुस्तकें पढ़ने की आदत डालें तभी कोई लिख पाएगा.
लेखक ने किताब के बारे में दर्शकों को दी जानकारी
पुस्तक “काल और ताल” के लेखक अनूप लाठर ने पुस्तक की पृष्ठभूमि को लेकर विस्तार से जानकारी दी. उन्होने बताया कि बहुत से प्रदेशों की लोक संस्कृति पर बहुत काम हुआ है, लेकिन हरियाणा में ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने बताया कि करीब 30 साल पहले इस पुस्तक को लिखने का ख्याल आया था. फिर लोकगीतों को संकलित करने का काम किया गया. उन गीतों के गायन को लेकर संगीत के ज्ञाता प्रो. एसके सलूजा ने नोटेशन तैयार किए. इस तरह से 150 गीतों का यह संग्रह तैयार हो पाया. उन्होने कहा कि आने वाली पीढ़ियों के लिए यह पुस्तक बहुत बड़ी देन साबित होगी.
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