नई दिल्ली: साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित छह दिवसीय साहित्योत्सव के दूसरे दिन सबसे महत्त्वपूर्ण आयोजन संवत्सर व्याख्यान हुआ, जिसे प्रख्यात लेखक, रचनात्मक विचारक तथा भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने दिया. ‘प्राचीन महाकाव्यों और ग्रंथों के मिथक: कानून और जीवन से संबंधित आधुनिक व्याख्या’ विषय पर केंद्रित यह व्याख्यान जीवन मूल्यों के प्रति गहरी चिंता को दर्शाता है तथा साहित्यिक आंदोलन और वर्तमान साहित्यिक रुझानों के प्रति नवीन आयाम खोलता है. उनके अनुसार, प्राचीन महाकाव्यों की अवधारणाओं तथा ग्रंथों की अवधारणा का कोई कालानुक्रमिक या विशिष्ट संदर्भ नहीं है.
न्यायमूर्ति मिश्रा ने अपने व्याख्यान में एकलव्य, गंगा पुत्र देवव्रत, कर्ण आदि से संबंधित महाभारत की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर चर्चा की. परिचर्चा के अंतर्गत वैचारिकता और साहित्य पर विचार-विमर्श हुआ. अमरेंद्र खटुआ ने कहा कि पिछले दिनों कई राजनयिकों की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पुस्तकें आई हैं, जो यह दर्शाती हैं कि इनका अनुभव परिदृश्य भी सृजनात्मकता के लिए अनुकूल है.
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा का स्वागत करते आयोजक. यह भी पढ़ेंः 'हरित विश्व, हरित राष्ट्रमंडल, हरित भारत' थीम पर MCD का सहयोगी बनेगा रवांडा गणराज्य, चलाएगा पौधरोपण कार्यक्रम
लेखकों ने अपने विचार साझा किएः कार्यक्रम के दूसरे दिन 24 भारतीय भाषाओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखकों ने अपने रचनात्मक अनुभवों को साझा किया. हिंदी के लिए पुरस्कृत लेखन बद्रीनारायण ने कहा कि हमारी ‘स्थानीयता’ हमारी शक्ति है. इसमें निहित रचना शक्ति को हमें खोज-खोजकर लाना होगा, उन्हें नए संदर्भों में परिकल्पित करना होगा. यह तभी संभव होगा, जब हम हिंदी के साहित्यकार होते हुए अपनी अन्य भारतीय भाषाओं की स्थानिक रचना स्रोतों से जुड़ सकें. उन्होंने कहा कि अभी हमारी सबसे बड़ी चुनौती है कि ‘रचना’ को हम चीज़ों (थिंग्स) में तब्दील न होने दें.
संस्कृत भाषा के लिए पुरस्कृत जर्नादन प्रसाद पांडेय ‘मणि’ ने कहा कि आज के जमाने में सारी विधाओं में संस्कृत रचना लिखी जा रही है. उर्दू में जो ग़ज़ल है वह संस्कृत में गलज्जलिका के नाम से लिखी जा रही है. वर्तमान समय की सारी घटनाओं एवं समस्याओं से संस्कृत परिचित है और अपने साहित्य में बड़ी उर्वरता के साथ उसे अभिव्यक्ति दे रही है. उर्दू के लिए पुरस्कृत प्रख्यात आलोचक अनीस अशफाक ने कहा कि आलोचना करते समय मैं अपनी माँ की उस सीख को याद रखता हूँ जिसमें उन्होंने कहा था हमें हमेशा अपने पारंपरिक तरीक़ों पर विश्वास करना चाहिए न कि समाज की किसी अन्य कसौटियों पर.
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