हैदराबाद: जिस देश में अन्य खेलों के मुकाबले क्रिकेट को ज्यादा तव्वजो मिलती है, उसी देश में एक खिलाड़ी की अपील पर पूरा स्टेडियम खचाखच भर जाता है.
हमें गालियां दो, आलोचना करो लेकिन भारतीय फुटबॉल टीम को खेलते देखने स्टेडियम में आओ.ये शब्द थे भारतीय टीम के कप्तान सुनील छेत्री के.
उनके इस एक अपील के बाद मानो चमत्कार हो गया और केनिया के खिलाफ खेले गए इंटरकॉन्टिनेंटल कप में भारतीय फुटबॉल टीम के मैच से पहले ही सारे टिकट बिक गए.
इस मैच की खास बात ये थी कि छेत्री का ये 100वां अंतरराष्ट्रीय मैच था.
साल 2005 में पाकिस्तान के खिलाफक्वेटा में एक दोस्ताना मैच के जरिए अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल में पदार्पण करने वाले छेत्री ने आज अपने अंतरराष्ट्रीय करियर के 15 साल पूरे कर लिए.
इन 15 सालों में छेत्री ने बहुत कुछ हासिल किया है और अपनी अलग पहचान बना चुके है. अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल में कदम रखने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. अपनी लगन और मेहनत से वे आगे बढ़ते रहे.
ये बात बहुत कम लोग जानते हैं कि छेत्री ने बहुत ही कम उम्र से ही फुटबॉल खेलना शुरू कर दिया था. मात्र 17 साल की उम्र में ही उन्होंने मोहन बगान के लिए पहली बार प्रोफेशनल फुटबॉल खेला था.
फुटबॉल तो सुनील छेत्री के खून में था. उनके माता-पिता दोनों ही फुटबॉल खेला करते थे. छेत्री की मां नेपाल की महिला टीम से फुटबॉल खेला करती थी और पिता भारतीय सेना की ओर से फुटबॉल खेलते थे.
अंतरराष्ट्रीय करियर
छेत्री के लिए साल 2007 उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वॉइंट था. इस साल खेले गए नेहरू कप में उन्होंने कम्बोडिया के खिलाफ दो गोल दागे थे. इस मैच ने उन्हें रातों रात स्टार बना दिया और लोगों ने उनकी प्रतिभा की खूब सराहना की.
इसके बाद वे एक के बाद एक बुलंदियों की सीढ़ियां चढ़ते गए. साल 2007, 2009 और 2012 में उन्होंने भारतीय टीम को नेहरू कप जिताया. इसके अलावा साल 2011 में सैफ चैंपियनशिप में भारतीय टीम ने जीत का परचम लहराया.
एफसी चैलेंज कप 2008 में ताजिकिस्तान के विरुद्ध तीन गोल मारकर उन्होंने भारत को 27 साल के बाद एशिया कप के लिए प्रवेश दिलाया था. 2011 एएफसी एशियन कप में उनकी कप्तानी में टीम ने पांचवां स्थान हासिल किया.