अभिषेक चौबे फिल्म में अपनी कहानी वहां से उठाती है जहां की जड़ों में जात-पात, ऊंच-नीच, लिंग भेद और मर्दानगी है. फिल्म की शुरूआत ही एक बहुत ही हैरान कर देने वाले सीन से होती है जहां एक कोबरा के मरे हुए शरीर पर मक्खियां भिनभिना रही हैं. जैसे ही डकैतों का झुंड पास पहुंचने लगता है, उनका सरदार, सपेरे को अपनी बंदूक की नोंक पर उठाता है और कुछ प्रार्थना पढ़ कर किनारे रख देता है.
फिल्म में धीरे धीरे लगता है कि अपने इस साहसी और मज़बूत इरादों के पीछे, कहीं ना कहीं ये बागी, गलत चीज़ें करने का बोझ उतारने की कोशिश करते हैं. और ऐसा करने के लिए वो बेचैन रहते हैं. इन डकैतों का सरदार है मान सिंह यानी की मनोज बाजपेयी. ये सारे बागी, इस पूरे खेल में किसी चूहे की तरह हैं जिन्हें अपने फायदे के लिए ढूंढकर शिकार बनाने की कोशिश कर रहा है एक
सांप वीरेंद्र गुज्जर यानी की आशुतोष राण. इन सबके ऊपर, जात-पात की समस्या इस टोली पर गिद्ध की तरह नज़र गड़ा कर बैठी रहती है और औरतों की भी स्थिति अच्छी नहीं है.
अभिषेक चौबे, फिल्म के जरिए चंबल के पहाड़ों को खोद कर उनकी गहराईयों में घुसने की कोशिश करते हैं जहां सिर्फ और सिर्फ मौत का सन्नाटा है लेकिन वहां से वापस ला पाने की गारंटी वो आपको नहीं देते. हालांकि चंबल को बिल्कुल सही आईने से दिखाने की उनकी कोशिश तारीफ के काबिल जरुर है. हर किरदार की डीटेल बहुत ही शानदार ढंग से पिरोई गई है. लेकिन अफसोस इतनी कोशिशों के बाद भी फिल्म की दिशा खराब करती है.
हालांकि फिल्म का प्लॉट बहुत ही ठोस है लेकिन उसके ऊपर कहानी की परतें बनाने में अभिषेक चौबे चूक जाते हैं. थोड़े टाइम के बाद आपके सामने फिल्म की कहानी, रेत की तरह उड़ती है और आप बस अपनी सीट पर उलझन में बैठे रह जाते हैं.
फिल्म में जाति प्रथा, पितृसत्ता, लिंग भेद और अंधविश्वास को दिखाया गया है. फिल्म ये भी दिखाती है कि क्यों बदला लेने और न्याय में अंतर है.
विशाल भारद्वाज का म्यूजिक और रेखा भारद्वाज की आवाज, किरदारों के अंदर चल रहे तूफान को पर्दे पर लाने में सफल रहे. स्पेशल अपियरेंस में भी मनोज बाजपेई ने साबित किया है कि वो एक बेहतरीन ऐक्टर हैं. सुशांत सिंह राजपूत ने लखना का किरदार पूरे दिल से निभाया है. भूमि पेडनेकर ने एक बहादुर महिला के किरदार के साथ न्याय किया है और आशुतोष राणा ने ऐंटी-हीरो के तौर पर बेमिसाल ऐक्टिंग की है.