हैदराबाद : जीडीपी के आधार पर भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है. भारत ने ब्रिटेन को पीछे छोड़ दिया है. आईएमएफ ने खुद इस तथ्य को उद्धृत किया है. इतना ही नहीं, भारत की यह आर्थिक प्रगति थमने वाली नहीं है, यह आगे भी जारी रहेगी. एस एंड पी ग्लोबल मार्केट इंटेलिजेंस के अनुसार 2030 तक भारत जर्मनी और जापान को पछाड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है.
एक अनुमान के अनुसार तब भारत की जीडीपी 7.3 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकती है. इस समय यह आंकड़ा 3.5 ट्रिलियन डॉलर है. यह आंकड़ा बहुत ही सुखद है, कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के पटल पर भारत से आगे सिर्फ दो ही देश होंगे, चीन और अमेरिका.
लेकिन इन आंकड़ों का एक और भी पहलू है. इसके अनुसार प्रति व्यक्ति आय के आधार पर भारत की रैंकिंग निम्न मध्य आय वाले देशों से भी नीचे है. यह हमारे यहां आय की असमानता को दर्शाता है. जी-20 के देशों में आर्थिक रूप से सबसे कमजोर देश भारत ही है. ऑक्सफेम के अनुसार 2022 में भारत में 35 करोड़ लोग ऐसे थे, जो भुखमरी के शिकार थे, 2018 में यह आंकड़े 19 करोड़ था.
आर्थिक वृद्धि के अलावा भी कई अन्य प्रकार की चुनौतियां हैं. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के कई परिवारों को मूलभूत सुविधाएं नहीं मिल पा रहीं हैं. उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं या उनकी वहां तक पहुंच नहीं है. एक आंकड़ा यह भी है कि 52 फीसदी भारतीय अपने पॉकेट से स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं और इसकी वजह से प्रत्येक साल छह करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जा रहे हैं.
ऊपर से महंगाई उनकी आमदनी को खाए जा रही है. यह तथ्य तब है जबकि कोविड के बाद मजदूरी की दर बढ़ाई गई है. आर्थिक विकास के साथ-साथ एक बड़ी आबादी के सामने जिस प्रकार की कठिनाइयां सामने हैं, उसने कई सवालों को जन्म दिया है. आखिर इन आर्थिक उपलब्धियों पर किसे गर्व होगा ?
जीडीपी बढ़ना किसी भी देश के विकास दर को दर्शाता है, यह सही है, लेकिन यह उस देश के विकास का एकमात्र पैमाना नहीं हो सकता है. आर्थिक विकास को लेकर जब आप दूसरे देशों से तुलना करते हैं, तो वह आपको आगे जरूर रखता है, लेकिन समग्र सामाजिक कल्याण के नजरिए से देखेंगे, तो यह सीमित परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं.
किसी भी देश की वास्तविक राष्ट्रीय संपत्ति सिर्फ धन के एकत्रित होने से नहीं बनती है, बल्कि वहां रहने वाले लोगों के जीवन स्तर में सतत सुधार और उन्नति से बनती है. कुछेक लोगों के पास संपत्ति लगातार बढ़ती जाए और हम कहें कि हमारे देश का आर्थिक विकास हो रहा है, तो यह सफलता का बेंचमार्क नहीं हो सकता है. किसी भी राष्ट्र की सही संपन्नता वहां के अधिकांश नागरिकों की बढ़ती आमदनी और उठते जीवन स्तर से निर्धारित किए जाते हैं.
वर्तमान में जो अंतर दिखता है, वह चिंताजनक हैं. एक देश जो भले ही कागज पर संपन्न दिखता हो, लेकिन एक बडी़ आबादी अपने तकदीर से लड़ रही हो, उसे संपन्न नहीं कहा जा सकता है. भारत की पहचान अभी भी एक कृषि देश के रूप में है. कृषि से जुड़ी हुई आबादी और वर्कफोर्स को कम मजदूरी और कर्ज का सामना करना पड़ता है.
यह जो तुलना है कि 52 फीसदी भारतीय अपने जेब से स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं और इसकी वजह से प्रत्येक साल छह करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जा रहे हैं, यह हकीकत दिखा रहा है. भूख और कुपोषण घटने के बजाए बढ़ रहे हैं. पूरी दुनिया के बच्चों में 30 फीसदी ऐसे भारतीय बच्चे हैं, जिनका ठीक से विकास नहीं हो पाता है. 50 फीसदी के सामने कुपोषण की समस्या है. इसलिए जब तक कि उन्हें या उनके परिवार को रोजगार और पौष्टिक आहार उपलब्ध नहीं करवा दिया जाता है, तब तक गुणात्मक बदलाव नहीं हो सकता है. एकांगी विकास हमारा समाधान नहीं है. आखिरकार, वास्तविक राष्ट्रीय प्रगति अपने सभी नागरिकों के लिए एक स्वस्थ, आशाजनक भविष्य सुनिश्चित करने का पर्याय है.
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(ईनाडु संपादकीय)