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द्रौपदी मुर्मू और नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला: दो जनजातियों के संघर्ष की गाथा

संथाल और पश्तू: दो जनजातियों के अलग-अलग आख्यान. एक का प्रतिनिधित्व भारतीय राष्ट्रपति कर रहीं हैं और दूसरी की प्रतिनिधि नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई. दो आदिवासी जनजातियों के बीच क्या समानताएं हैं और कैसे एक समुदाय समावेशी होता गया और दूसरे ने अपनी ताकत गंवा दी. पढ़ें ईटीवी भारत के न्यूज एडिटर बिलाल भट का विश्लेषण...

Murmu and Malala
Murmu and Malala

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Published : Jul 29, 2022, 1:23 PM IST

Updated : Jul 31, 2022, 11:35 AM IST

भारतीय उपमहाद्वीप में, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई दो महिलाएं हैं. दोनों अपनी दृढ़ता और मातृसत्ता के लिए महान शुरुआत के साथ-साथ सभी क्षेत्रों में महिलाओं की समान भागीदारी की प्रतीक बन गई हैं. हालांकि, जिन स्थितियों और कारणों से उन्हें लोकप्रियता हासिल हुई वह समाज के स्याह पक्ष को भी उजागर करता है. लेकिन एक दूसरा पहलू यह भी है कि इन दोनों महिलाओं का जिक्र हमें यह एहसास दिलाता है कि हम समाज के तौर पर लगातार बेहतर और समावेशी हो रहे हैं.

पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा (केपीके) क्षेत्र की एक पश्तो जनजाति की लड़की मलाला को एक दशक से भी अधिक समय पहले आतंकवादियों ने गोली मार दी थी. क्योंकि मलाला ने आंतकवादियों के लड़कियों के स्कूल नहीं जाने के फरमान को मानने से इनकार कर दिया था. गोली लगने के बाद भी मलाला ने अपनी पढ़ाई जारी रखी और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए राजी किया. वह खैबर पख्तूनख्वा में बच्चियों की शिक्षा के लिए लड़ती रहीं. अपने जीवन की परवाह किये बिना. उनके समर्पण और निडरता ने उन्हें नोबल शांति पुरस्कार दिलाया. मलाला पाकिस्तान के तत्कालीन फाटा (संघ प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों) क्षेत्र में महिलाओं पर किए गए अत्याचारों की याद दिलाती है.

दूसरी ओर, एक आदिवासी गांव की लड़की ( द्रोपदी मुर्मू ) का भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक का सफर भारत में आदिवासियों के लोकतांत्रिक सफर की नई कहानी बयान करता है. वह संथाल जनजाति से आती हैं. देश में संथाल जनजाति ज्यादातर चार राज्यों पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम और झारखंड में रह रही है. द्रोपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना खास है क्योंकि वह आदिवासी समुदाय से आतीं हैं. प्रतिभा देवी सिंह पाटिल पहली महिला राष्ट्रपति रह चुकी है. एक स्कूल टीचर से राष्ट्रपति भवन तक मुर्मू की यात्रा भारत में आदिवासियों के समग्र विकास की गाथा है.

जिस दिन सत्तारूढ़ दल भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में घोषित किया. पूरे देश में संथाल जनजाति को लेकर एक उत्सुकता जागी. लोग भावी राष्ट्रपति और उनके समुदाय के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहते थे. भारत में संथाल आबादी कुल आदिवासियों की आबादी का आठ प्रतिशत है, जो सबसे बड़ी है. द्रौपदी मुर्मू के उम्मीदवार बनने के बाद संथाल आदिवासियों पर मीडिया में काफी कुछ लिखा गया. जिसमें उनके जीवन जीने के तरीके और राजनीतिक कौशल के बारे में बातें कही गईं.

बहादुरी और युद्ध कौशल के मामले में, संथालों की तुलना पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा के पश्तूनों से की जा सकती है. जिस तरह से संथालों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सबसे पहला हूल आंदोलन शुरू किया था. उसी तरह पूर्व एनडब्ल्यूएफपी (उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत जो अब खैबर पख्तूनख्वा है ) ने खान अब्दुल गफ्फार खान (1890 - 20 जनवरी 1988) जिन्हें सीमांत गांधी भी कहा जाता था, जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को पैदा किया.

संथाल जनजाति के स्वतंत्रता सेनानियों में से एक तिलका मांझी ने अंग्रेजों के खिलाफ पहले आदिवासी सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया. थलकल चंदू एक अन्य संथाल ने केरल में ब्रिटिशों से लड़ाई लड़ी और किले पर कब्जा भी किया. हालांकि बाद में उन्हें मार दिया गया. संथालों का जिक्र करते हुए 'हूल आंदोलन' कर जिक्र ना करना मुश्किल है. इतिहास है कि 1857 के सैनिक विद्रोह से भी पहले सिद्धो मुर्मू और कान्हो मुर्मू जो संथाल आदिवासी थे ने मिलकर 30 जून, 1855 को अंग्रेजी हुकूमत के अत्‍याचार के खिलाफ पहली बार विद्रोह का बिगुल फूंका. जिसे इतिहास में हूल आंदोलन के रूप में जाना जाता है.

खैबर पख्तूनख्वा के खान अब्दुल गफ्फार खान ने जहां आजादी की लड़ाई में गांधी और नेहरू का साथ दिया. वहीं, आज के दौर में मलाला की लड़ाई महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ है. मलाला और मुर्मू दो जनजातियों के अलग-अलग संघर्षों का आख्यान है. एक ओर ऐसा समाज है जो अपने परिवर्तन के अनुकूल खुद को ढाल रहा है. जबकि दूसरा अपने तरीकों में कठोर है और परिवर्तन के लिए तैयार नहीं है. मलाला एक अत्याचारी पितृसत्तात्मक आदिवासी समाज के खिलाफ लड़ रही है. ऐसा समाज जो किसी भी रचनात्मक परिवर्तन के लिए प्रतिरोधी है. जबकि संथाल आदिवासी जल, जंगल, जमीन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और मातृ सत्तात्मक समाज के लिए जाने जाते हैं और अब राष्ट्र निर्माण के समावेशी दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ रहे हैं.

पश्तून और संथाल की तुलना करें तो हम पाते हैं पश्तून ऐसी जनजाति रही है जिनकी प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच आसान रही है. इसके साथ ही यह एक स्वतंत्र और स्वायत्त समुदाय रहा है. जबकि संथाल आदिवासियों के पास संसाधनों तक कम पहुंच थी. वे हमेशा वंचित रहे. सत्ता के गलियारों में कम प्रतिनिधित्व वाले आर्थिक रूप से गरीब संथाल समुदाय ने राजनीतिक और अन्य क्षेत्रों में मान्यता और प्रतिष्ठा हासिल की.

जबकि राजनीतिक और आर्थिक रूप से मजबूत पश्तून अपनी ताकत बनाए रखने में असमर्थ रहे. दिन पर दिन कमजोर होते गए. पश्तूनों की राजनीतिक नेगोसिएशन की स्थिति कमजोर होती गई क्योंकि उन्होंने बातचीत की जगह हिंसा को अपने प्रतिरोध का हथियार बनाया. पाकिस्तानी सेना ने अपनी रणनीतियों का मुकाबला करने के लिए जर्ब-ए-अज्ब और रद्दुल फसाद जैसे ऑपरेशन किए, जिससे बड़ी संख्या में नागरिक हताहत हुए. पाकिस्तान ने अपने विरोधियों के खिलाफ जब भी जरूरत पड़ी कबायली लोगों का इस्तेमाल किया. उन्होंने उन्हें 80 के दशक में रूस के खिलाफ अफगानों के लिए लड़ने की अनुमति दी. उन्होंने उन्हें भारत के खिलाफ सैन्य अभियानों में नियोजित किया.

जहां पश्तून अपनी मांगों को पूरा करने के लिए हथियारों का इस्तेमाल करते थे, वहीं संथाल अपनी बहादुरी के प्रतीक के रूप में तीर और धनुष दिखाते हैं. संथालों ने धीरे-धीरे खेल, कला, कविता, साहित्य और राजनीति के माध्यम से अपने समुदाय को सशक्त बनाकर कई विषयों में खुद को स्थापित किया. जनजाति के अचीवर्स में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, पूर्णिमा हेम्ब्रम और फिल्म निर्माता दिव्या हांसदा जैसी खेल हस्तियां शामिल हैं. बिनीता सोरेन को लोकप्रियता तब मिली जब वह एवरेस्ट फतह करने वाली संथाल जनजाति की पहली सदस्य बनीं. इन सबसे ऊपर, राष्ट्रपति मुर्मू भारतीय संविधान के संरक्षक के रूप में देश का नेतृत्व करेंगी. अन्य राष्ट्रीय सशस्त्र बलों के साथ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना की कमान उनके हाथों में है. आदिवासी समाज को भी उनसे काफी उम्मीदें हैं.

Last Updated : Jul 31, 2022, 11:35 AM IST

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