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Lotus aims for Kerala after NE : उत्तर-पूर्वी राज्यों के बाद लेफ्ट के आखिरी 'किले' केरल पर भाजपा की नजर

भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर पूर्वी राज्यों में अपनी अच्छी पैठ बना ली है. लेफ्ट और कांग्रेस के बीच गठबंधन होने के बावजूद भाजपा ने यहां पर जीत का परचम लहराया. भाजपा की इस सफलता के पीछे आरएसएस का फील्ड वर्क छिपा है. दूसरी ओर कांग्रेस है कि अपने में बदलाव करने को 'राजी' नहीं है और भाजपा इस मौके का पूरा फायदा उठाने की ताक में बैठी है. उसकी अगली नजर अब केरल पर है. पढ़ें ईटीवी भारत के न्यूज एडिटर बिलाल भट का एक विश्लेषण.

amit shah, PM Modi, JP Nadda
अमित शाह, पीएम मोदी, जेपी नड्डा

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Published : Mar 10, 2023, 4:04 PM IST

Updated : Mar 10, 2023, 4:51 PM IST

हैदराबाद : उत्तर-पूर्वी राज्यों में भाजपा की सफलता सचमुच सराहनीय है. यह एक क्लासिक उदाहरण भी है, आखिर किस तरह से एक पार्टी ठीक वही काम करती है, जिसे जनता स्वीकार कर लेती है, भले ही वह पूरे देश के लिए व्यापक राजनीतिक लक्ष्य को पूरा कर रही हो या नहीं. वैसे, पार्टी ऐसा करने का दावा जरूर करती है. आप इसका उदाहरण देखना चाहते हैं, तो आपको बता दें कि 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नागालैंड के किसमा में नागालिंगम (ग्रेटर नागालैंड) को लेकर नारा दिया था. यह लोगों की भावना थी, जिसे उन्होंने पहचाना.

भारतीय जनता पार्टी ने पूर्वोत्तर में यूं ही रातों-रात सफलता के झंडे नहीं गाड़े हैं. इसके लिए आरएसएस पहले से ही ग्राउंड तैयार करती रही है. उसने सालों से उसके लिए जमीन तैयार करने का काम किया है. आरएसएस अपने राजनीतिक विंग, भाजपा, के लिए दिन-रात काम करता रहा है. अंदाजा लगाइए, पूर्वोत्तर में आरएसएस के कभी कुछ सौ कार्यकर्ता हुआ करते थे, आज की तारीख में 6000 से ज्यादा सदस्य हैं.

भाजपा की यह सफलता पूर्वोत्तर में कांग्रेस से मोहभंग को भी दर्शाती है. कांग्रेस शासन के दौरान जनता ने जो भी 'झेला' है, भाजपा ने उन आकांक्षाओं की पूर्ति करने का वादा किया है, कम से कम भरोसा तो जरूर दिला दिया. कांग्रेस के लिए भी पूर्वोत्तर इतना आसान नहीं रहा है. पूर्वोत्तर उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र रहा है. इसलिए अलगाववाद की भावनाओं पर लगाम लगाने के लिए सख्ती बरतना प्रशासन की मजबूरी रही है. अभी जिन तीन राज्यों के चुनाव हुए, वहां पर कांग्रेस पार्टी ने अलगाववाद से इतर कुछ भी सोचने का काम नहीं किया, इसलिए पार्टी लगातार सिमटती चली गई.

एक समय था, जब पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों में अलगाववादी संगठन चुनाव बहिष्कार की घोषणा किया करते थे, और इसका फायदा कांग्रेस को मिल जाता था. कांग्रेस इसे अपनी सफलता और लोकप्रियता, दोनों मानकर चलती रही. मुख्य रूप से उसके दो काम होते थे. अलगाववाद पर काबू लगाना और शांति स्थापित करना. इन्हीं दोनों फैक्टरों को ध्यान में रखकर कांग्रेस अपने उम्मीदवारों का चयन करती रही है. सालों तक पार्टी ऐसा ही करती रही. लेकिन अब उसका समय लद गया. यहां पर भी लोगों की इच्छाएं विकास को लेकर उन्मुख होने लगीं. आप इसे कह सकते हैं कि पार्टी राजनीतिक सृजनहीनता की अवस्था में चली गई. बार-बार इस क्षेत्र को लेकर हिंसा की बात करना, पूर्वोत्तर के लोगों ने इसे अति मान लिया. भाजपा ने इसका फायदा उठाया. उसने वहां पर उनकी आकांक्षाओं की बात की. उनकी उम्मीदों को जगाया. क्षेत्रीय पार्टियों से हाथ मिलाया. और इस तरह से पार्टी ने उत्तर पूर्व में अपनी गहरी पैठ बना ली. भाजपा ने पूर्वोत्तर की अन्य पार्टी बनने के बजाए, उत्तर पूर्व की जनता को 'आत्मसात' करने की कोशिश की.

नागालैंड और मेघालय की बहुसंख्य आबादी ईसाई धर्म को मानती है. दूसरी ओर भाजपा हिंदुत्व को लेकर उग्र रही है. नागालैंड और मेघालय में ईसाइयों की आबादी क्रमशः 88 फीसदी और 75 फीसदी है. दोनों राज्यों में सत्ता में शामिल होने पर पार्टी निश्चित तौर पर अपने आप को एन्क्लुसिव के तौर पर पेश करेगी. धर्म के अलावा भाजपा के सामने ग्रेटर नागालैंड जैसी मांगों से भी निपटना चुनौतीपूर्ण था.

दिसंबर 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी ने किसमा में हॉर्नबिल फेस्टिवल पर नागालिंगम का नारा दिया था. पीएम ने इस फेस्टिवल के मौके का चयन सोच-समझकर किया था. यह एक रणनीति थी. नागालैंड में जितने भी एथनिक ग्रुप हैं, वे सभी इस उत्सव को मनाते हैं. उससे एक साल पहले 2013 में पार्टी की हार हुई थी, उससे सबक लेते हुए भाजपा ने तब क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन शुरू कर दिया था. 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 11 उम्मीदवारों को खड़ा किया, उनमें से आठ की जमानत जब्त हो गई थी. मेघालय में तो सभी 13 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी.

2014 में जब नरेंद्र मोदी ने पीएम पद की शपथ ली, उसके बाद उत्तर पूर्वी राज्य हमेशा उनकी प्राथमिकताओं में रहे हैं. उन्होंने ऐसा लगता है कि एक लक्ष्य निर्धारित कर लिया था, कि भाजपा हिंदुओं की पार्टी है, इस छवि से पार्टी को पूर्वोत्तर राज्यों में निजात दिलाना है. पार्टी ने सोच-समझकर एक ईसाई व्यक्ति को वहां का प्रभारी बनाया. पूर्व केंद्रीय मंत्री अलपांस को पार्टी ने 2018 में प्रभारी नियुक्त किया था. भाजपा ईसाई आबादी को प्रभावित करना चाहती थी. उन्होंने चर्च के मरम्मत की घोषणा की. माना जाता है कि उनके इस कदम से ईसाइयों के बीच भाजपा को लेकर सोच बदलनी शुरू हो गई थी. हालांकि, 2018 में एक बार फिर से अधिकांश जगहों पर कांग्रेस को ही सफलता मिली. फिर भी, वहां के लोग विकल्प की तलाश में थे. उनके हिसाब से कांग्रेस ने वहां के लोगों को चुनाव की प्रक्रिया का कभी हिस्सा नहीं समझा. भाजपा ने इस सोच का पूरा फायदा उठाया.

पूर्वोत्तर के राज्यों में लोगों को और अधिक से अधिक एनगेज करने के लिए भाजपा ने अपने सभी बड़े चेहरों को वहां पर भेजना शुरू किया. पीएम मोदी खुद वहां पर 50 बार से ज्यादा जा चुके हैं. भाजपा के 70 मंत्रियों का 400 से अधिक बार दौरा हो चुका है. साथ ही भाजपा ने सहयोगी पार्टियों के जरिए लोगों के बीच घुलने का प्रयास किया. उनके इन सभी कदमों से कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगी है.

पूर्वोत्तर में कांग्रेस ने लेफ्ट के साथ गठबंधन जरूर किया है, लेकिन दूसरे राज्यों में इस तरह के गठबंधन नहीं है. पर, अगर ऐसा होता है, तो निश्चित तौर पर पार्टी को फायदा पहुंचेगा. खासकर केरल से बाहर. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा केरल में साफ हो गई थी. लेकिन भाजपा आरएसएस के जरिए अपना पांव पसारने की लगातार कोशिश कर रही है. अभी केरल में वाम का किला बचा हुआ है. अगर भविष्य में कभी भाजपा ने यहां पर पैर पसारे, तो निश्चित तौर पर भाजपा सचमुच में एनक्लुसिव होने का दावा केरगी. और शायद उसकी विश्वसनीयता भी बढ़ेगी. और आरएसएस की सफलता कांग्रेस की विफलता और लेफ्ट प्रशासन की कार्यशैली पर आधारित है.

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Last Updated : Mar 10, 2023, 4:51 PM IST

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