हैदराबाद : लंबे समय पहले, सैद्धांतिक भौतिकी के सबसे प्रसिद्ध और 1965 के नोबेल पुरस्कार विजेता रिचर्ड फेनमैन ने कहा था, 'धर्म विश्वास की संस्कृति है, विज्ञान संदेह की संस्कृति है.' अलग-अलग विश्वास प्रणालियों के साथ, यह कोई आश्चर्य नहीं है कि विरोधाभास अब आए दिन दिखता ही रहता है. और पाकिस्तान की बात की जाए, तो उससे बेहतर और कोई उदाहरण हो नहीं सकता है.
पूरी दुनिया कोरोना महामारी का जिस तरीके से सामना कर रही है, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने शुरुआती स्तर पर सख्ती दिखाई. लेकिन वे इसे जारी नहीं रख सके. उलेमा और पादरी के दबाव में झुक गए. उन्होंने अपने पुराने आदेश को वापस ले लिया. अब मस्जिदों में भीड़ भी एकत्रित होगी और सामाजिक दूरी में ढिलाई बरतने का नया फरमान भी जारी कर दिया.
दरअसल, रमजान के महीने में मस्जिदों में सुबह-शाम प्रार्थानाओं का आयोजन किया जाता है. शाम के समय सामूहिक प्रार्थना यानी तारावीह होता है. यह उनका अभिन्न अंग है. वे अल्ला से क्षमा याचना करते हैं.
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पहले से ही खस्ताहाल है. लॉकडाउन उस पर कहर बनकर बरप रहा था. लिहाजा, इमरान ने कुछ उद्योग, कारखाने और कार्यस्थल में छूट दे दी.
हालांकि, यह दिखता जरूर है कि इमरान ने अर्थव्यस्था को पटरी पर लाने के लिए लॉकडाउन में छूट दी है, लेकिन दरअसल, हकीकत ये है कि वे मौलाना के आगे झुक गए हैं. ऐसा इसलिए कि उद्योग को छूट देने का फरमान समझ में आता है, लेकिन मस्जिदों में छूट देने की क्या मजबूरी हो सकती है.
दरअसल, पाकिस्तान की मस्जिदों में बड़ी-बड़ी सभाएं शक्ति का प्रदर्शन मानी जाती हैं. जो जितनी बड़ी भईड़ इकट्ठा कर पाता है, वह उतना ही शक्तिशाली माना जाता है. ऐसे में जाहिर है, कोरोना संकट के समय इसकी इजाजत देना महामारी को आमंत्रण देने जैसा है.