हैदराबाद : म्यांमार के साथ चीन 1500 मील की सीमा साझा करता है. लिहाजा, जब भी म्यांमार में सैन्य या राजनीतिक उथल-पुथल मचती है, इसका असर चीन पर पड़ना तय है. वैसे, चीन म्यांमार के आंतरिक मामलों में काफी दखलअंदाजी रखता है. जब राखिने प्रांत में रोहिंग्या संकट बढ़ा, तब चीन म्यांमार के बचाव में उतर गया. यहां पर तातमाद ने रोहिंग्या के खिलाफ 'जातीय' सफाई का क्रूर अभियान चला रखा है. संयुक्त राष्ट्र में जब म्यांमार पर प्रतिबंध लगाने की बात चली, तो चीन उसकी ढाल बनकर खड़ा हो गया. आतंकवादियों के खिलाफ अभियान के नाम पर चीन ने म्यांमार की भरपूर मदद की.
राखिने में चीन का बड़ा आर्थिक हित छिपा हुआ है. उसने क्युक्फ्यू में बंदरगाह विकसित किया है. विशेष आर्थिक क्षेत्र की योजना बना रखी है. रेल, सड़क, पाइपलाइन को विकसित किया जा रहा है, ताकि ऊर्जा और अन्य सामग्रियों को बंगाल की खाड़ी से म्यांमार के जरिए चीन के युन्नान प्रांत तक ले जाया जा सके.
म्यांमार के आंतरिक संघर्षों के जरिए चीन की क्या भूमिका है, इसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. और संभवतः यह अमेरिकी शांति-समर्थन नीतियों को आगे बढ़ाने में मदद कर सकती है.
हकीकत से अलग चीन के हालात
चीन हमेशा से दावा करता रहा है कि वह आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है. यह उसकी नीति है. लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है. वह म्यांमार की शांति प्रक्रिया में बहुत ही सक्रिय भूमिका रख रहा है. कई बार तो वह दबाव भी बनाता है. इसके जरिए वह पूरे क्षेत्र में अपने नेतृत्व को नई धार देने की कोशिश करता है. उसकी कोशिश रहती है कि म्यांमार में उसे व्यापक समर्थन मिले.
चीन के भीतर और आधिकारिक नियंत्रण के बाहर निजी स्तर पर भी इस संघर्ष को बल दिया जा रहा है. इसमें सीमा पर अवैध व्यापार और अन्य सेवाएं शामिल हैं.
चीन ने पिछले एक दशक में म्यांमार नीति को मजबूत किया है. राजनयिक, सैन्य और आर्थिक पहलुओं को लेकर बेहतर समन्वय और नियंत्रण सुनिश्चित करने पर उसका मुख्य जोर रहा है. हालांकि, इसके बावजूद म्यांमार के कई ऐसे आंतरिक मामले हैं, जिसकी वजह से चीन का प्रभाव बाधित होता रहता है.
म्यांमार का दृष्टिकोण बड़ी शक्तियों के प्रति हमेशा से संदेह भरा रहा है. संप्रुभता की रक्षा का मुद्दा उठता रहा है. भारत और चीन के बीच बर्मा की भौगोलिक स्थिति है. इसने देखा है कि राजनीतिक दबाव और उपनिवेशवाद किस तरह किसी देश को कमजोर कर देता है. लिहाजा, उसे विदेशी शक्तियों का भय हमेशा रहता है.
बर्मा चीन के साथ 1500 मील की सीमा साझा करता है. वह राजनीति, युद्ध, वाणिज्य के जरिए चीन से अटूट रूप से जुड़ा है.
1769 में हुआ शांति समझौता
1760 के दशक में मंगोल के नेतृत्व वाले युआन राजवंश ने बर्मा को जीतने का कई बार प्रयास किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. भौगोलिक बाधाएं जैसे पहाड़, नदी, जंगल से निकल पाना मुश्किल होता था. आखिरकार, दोनों पक्षों ने 1769 में शांति समझौता कर लिया. तब से चीन के साथ बर्मा का एक तरीके से अप्रत्यक्ष समझौता कायम रहा.1885 में यह ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा बन गया.
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के अंत में चीन और बर्मा के बीच करीबी बढ़ी. युन्नान और उत्तरी बर्मा के बीच लोगों का आना-जाना बहुत हुआ. चीनी मूल के कई लोग बर्मा आकर बसने लगे. सीमा पर अवैध कारोबार भी बढ़ता रहा. तस्करी भी जारी रहा.