काठमांडू :नेपाल में पल-पल बदल रहे राजनीतिक हालात पर भारत और चीन दोनों देशों की नजरें बनी हुई है. केपी शर्मा ओली सरकार के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. नेपाल की सुप्रीम कोर्ट ने ओली सरकार के उस फैसले को असंवैधानिक ठहरा दिया, जिसके तहत उन्होंने निचले सदन को भंग कर चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी.
पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा कि 2015 में बनाए गए नेपाल के संविधान के तहत प्रधानमंत्री को सदन भंग करने का अधिकार नहीं है. यह फैसला ओली के लिए और भी शर्मिंदगी भरा रहा, क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि उनके पास सदन को भंग करने का पूरा अधिकार है.
23 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें गलत साबित कर दिया. इस फैसले ने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के पुराने नेताओं, विरोधी पार्टी नेपाली कांग्रेस और सिविल सोसाइटी के लोगों की बांछें खिला दीं.
फैसले के अनुसार 13 दिनों के अंदर, यानी आठ मार्च तक, सदन की बैठक बुलानी पड़ेगी. विपक्षी दल अपनी-अपनी रणनीति बनाने में व्यस्त हैं. माना जा रहा है कि जब तक ओली इस्तीफा नहीं देंगे, तब तक उन पर अविश्वास प्रस्ताव का खतरा मंडराता रहेगा.
भारत के लिए क्या है खास
भारत और नेपाल 1800 किलोमीटर की खुली सीमा साझा करते हैं. यहां पर आसानी से एक दूसरे की सीमा में दाखिल हुआ जा सकता है. दोनों देशों के लोग ऐतिहासिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और सभ्यता के स्तर पर गहरे रूप से जुड़े हुए हैं. जाहिर है, ऐसे में नेपाल में उठापटक हो, इसका भारत पर असर न पड़े, ऐसा संभव ही नहीं है.
ऐसी राजनीतिक मान्यता है कि ओली दिल्ली के पसंदीदा नेता नहीं हैं. पिछले साल जून में नेपाल के पीएम ओली ने नए राजनीतिक नक्शे को प्रकाशित करने की अनुमति दे दी. इसमें लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाल का हिस्सा बता दिया गया. यह क्षेत्र भारत-नेपाल-चीन की सीमाओं को छूता है. माउंट कैलाश और मानसरोवर के दक्षिण का यह इलाका है. नेपाली संसद ने नक्शे को मान्यता प्रदान कर दी. बाद में इसे नेपाल के राजकीय चिन्ह और आधिकारिक बैज में भी शामिल कर लिया गया.
नेपाल का यह फैसला भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की आठ मई, 2020 को इस क्षेत्र का दौरा करने के बाद आया था. सिंह ने लिपुलेख-कालापनी के बीच आवागमन को लेकर सड़क का उद्घाटन किया था. नेपाल लंबे समय से लिपुलेख की जमीन पर दावा करता रहा है. ब्रिटिश भारत और नेपाल के बीच 1816 में सुगौली की संधि हुई थी. नेपाल इसी संधि का हवाला देता है. इसे सुलझाने के लिए नेपाल और भारत ने इस विवाद पर अब तक औपचारिक बैठक नहीं की है. अब जबकि नेपाल में राजनीतिक अस्थायित्व का दौर चल रहा है, इस मुद्दे से चीन और भारत की अपेक्षा नेपाल अधिक परेशान हो सकता है.