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नेपाली सत्ताधारी दल का औपचारिक विभाजन तय, भारत-चीन की पैनी नजर

आठ मार्च को नेपाल के निचले सदन की बैठक है. इस दिन यह तय हो जाएगा कि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी दो भागों में विभाजित होती है या नहीं. केपी शर्मा ओली और पुष्प कमल दहल प्रचंड के बीच खींचतान चल रही है. इस स्थिति का फायदा विपक्षी पार्टियां उठा सकती हैं. जाहिर है, देश में जब राजनीतिक अस्थायित्व का दौर चल रहा हो, इसका असर भारत और चीन दोनों देशों पर पड़ना तय है. पढ़ें एक विश्लेषण.

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Published : Feb 26, 2021, 7:00 AM IST

काठमांडू :नेपाल में पल-पल बदल रहे राजनीतिक हालात पर भारत और चीन दोनों देशों की नजरें बनी हुई है. केपी शर्मा ओली सरकार के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. नेपाल की सुप्रीम कोर्ट ने ओली सरकार के उस फैसले को असंवैधानिक ठहरा दिया, जिसके तहत उन्होंने निचले सदन को भंग कर चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी.

पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा कि 2015 में बनाए गए नेपाल के संविधान के तहत प्रधानमंत्री को सदन भंग करने का अधिकार नहीं है. यह फैसला ओली के लिए और भी शर्मिंदगी भरा रहा, क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि उनके पास सदन को भंग करने का पूरा अधिकार है.

23 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें गलत साबित कर दिया. इस फैसले ने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के पुराने नेताओं, विरोधी पार्टी नेपाली कांग्रेस और सिविल सोसाइटी के लोगों की बांछें खिला दीं.

फैसले के अनुसार 13 दिनों के अंदर, यानी आठ मार्च तक, सदन की बैठक बुलानी पड़ेगी. विपक्षी दल अपनी-अपनी रणनीति बनाने में व्यस्त हैं. माना जा रहा है कि जब तक ओली इस्तीफा नहीं देंगे, तब तक उन पर अविश्वास प्रस्ताव का खतरा मंडराता रहेगा.

भारत के लिए क्या है खास
भारत और नेपाल 1800 किलोमीटर की खुली सीमा साझा करते हैं. यहां पर आसानी से एक दूसरे की सीमा में दाखिल हुआ जा सकता है. दोनों देशों के लोग ऐतिहासिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और सभ्यता के स्तर पर गहरे रूप से जुड़े हुए हैं. जाहिर है, ऐसे में नेपाल में उठापटक हो, इसका भारत पर असर न पड़े, ऐसा संभव ही नहीं है.

ऐसी राजनीतिक मान्यता है कि ओली दिल्ली के पसंदीदा नेता नहीं हैं. पिछले साल जून में नेपाल के पीएम ओली ने नए राजनीतिक नक्शे को प्रकाशित करने की अनुमति दे दी. इसमें लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाल का हिस्सा बता दिया गया. यह क्षेत्र भारत-नेपाल-चीन की सीमाओं को छूता है. माउंट कैलाश और मानसरोवर के दक्षिण का यह इलाका है. नेपाली संसद ने नक्शे को मान्यता प्रदान कर दी. बाद में इसे नेपाल के राजकीय चिन्ह और आधिकारिक बैज में भी शामिल कर लिया गया.

नेपाल का यह फैसला भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की आठ मई, 2020 को इस क्षेत्र का दौरा करने के बाद आया था. सिंह ने लिपुलेख-कालापनी के बीच आवागमन को लेकर सड़क का उद्घाटन किया था. नेपाल लंबे समय से लिपुलेख की जमीन पर दावा करता रहा है. ब्रिटिश भारत और नेपाल के बीच 1816 में सुगौली की संधि हुई थी. नेपाल इसी संधि का हवाला देता है. इसे सुलझाने के लिए नेपाल और भारत ने इस विवाद पर अब तक औपचारिक बैठक नहीं की है. अब जबकि नेपाल में राजनीतिक अस्थायित्व का दौर चल रहा है, इस मुद्दे से चीन और भारत की अपेक्षा नेपाल अधिक परेशान हो सकता है.

1996-2006 के बीच नेपाल माओवादी क्रांति से जूझता रहा है. 17 हजार से अधिक लोगों की जान चली गई. 2015 के नेपाल का संविधान अभी पूरी तरह से लागू नहीं हुआ है. इस संविधान सभा के लिए दो बार चुनाव हुए थे. नेपाल अब भी आर्थिक दुर्गति का सामना कर रहा है. बेरोजगारी की दर बहुत अधिक है. रोजगार के लिए नेपाल के युवा भारत और दूसरे देशों का रूख कर रहे हैं.

क्या है चीन की स्थिति
ऐसा नहीं है कि नेपाल की स्थिति चीन के लिए बहुत सुखद है. चीन और नेपाल 1400 किलोमीटर की सीमा साझा करते हैं. इनमें अधिकांश पर्वतीय इलाके हैं. सीमा को लेकर कोई विवाद नहीं है. हालांकि, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को लेकर चीन नेपाल पर दबाव बना रहा है. नेपाल ने बीआरआई पर सहमति जताई है. बीआरआई पर दोनों देशों के अधिकारियों की कई बार एक दूसरे के यहां भी बैठक हुई. नेपाल के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी नेपाल दौरे पर आए थे. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को एक रहने की सलाह दी.

नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में मुख्य रूप से दो धड़े हैं. एक का नेतृत्व प्रचंड कर रहे हैं, दूसरे का केपी शर्मा ओली. अक्टूबर 2017 में दोनों गुट एक हो गए थे. चीन के राजदूत हू यांगची ने इसमें काफी सक्रिय भूमिका निभाई थी.

एनसीपी में जब राजनीतिक खींचतान बढ़ी, तो यांगची ने ओली और प्रचंड गुट के बीच समझौता कराने की पूरी कोशिश की पर उन्हें सफलता हासिल नहीं हुई. दोनों नेताओं के बीच संबंध और खराब हो गए. चीन की कोशिश यहां पर टूटती हुई नजर आ रही है.

आगे क्या रास्ता है
आठ मार्च को निचले सदन की बैठक है. कयास लगाए जा रहे हैं कि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का औपचारिक विभाजन उसी दिन हो जाएगा. दोनों गुट प्रधानमंत्री पद पर दावे कर रहे हैं. प्रचंड के साथ माधव नेपाल, झाला नाथ खनल हैं. दावा है कि सेंट्रल कमेटी के सदस्यों में से 70 फीसदी प्रचंड- माधव नेपाल के समर्थक हैं. हालांकि, ओली का दावा कुछ और है.

वैसे, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों धड़ों के पास बहुमत नहीं है. दोनों गुटों की कोशिश विपक्षी दलों को अपने में मिलाने की है. नेपाल कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा हैं. जनता समाजवादी पार्टी का नेतृत्व बाबूराम भट्टाराय के पास है. अगले दो सप्ताह नेपाल के लिए काफी अहम हैं.

सत्ता का नेतृत्व प्रचंड, देउबा या ओली के हाथों होगी. नेपाल के बदलाव की भी जिम्मेवारी इन्हीं के कंधों पर होगी.

(लेखक- सुरेंद्र फुयाल, स्वतंत्र पत्रकार, काठमांडू)

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