काबुल: अफगानिस्तान में तालिबान शासन के लौटने की आहट सुनते ही महिलाएं परेशान हो उठी हैं. उन्हें फिर से वो मंजर दिखने लगा है, जब तालिबान अपने शासन के दौरान महिलाओं पर जुल्म ढहाया करता था. उन्हें घरों की चाहरदीवारी में सिमट कर जिंदगी जीने को मजबूर किया जाता था. अगर किसी ने विरोध करने की हिमाकत की तो सरेआम उनकी पिटाई की जाती थी. अब महिलाएं चाहती हैं कि यहां पर उनका शासन दोबारा ना लौटे.
खडेजा नाम की एक महिला अपने प्रति भयानक व्यवहार को याद करते हुए कहती है कि वह दर्द इतना असहनीय था कि वह भगवान से मरने के लिए प्रार्थना करती थी. उसके पति ने पॉट से उसके चेहरे पर हमला किया था. वह प्रार्थना करती थी कि उसकी मृत्यु हो जाए.
खडेजा के ठीक होने के बाद उन्होंने एक आश्रय स्थल बनाया, जहां वह कक्षाएं लेती हैं और हमेशा सबसे पहले अपना हाथ बढ़ाती है.लगातार दर्द में रहने के बावजूद, वह कहती है कि वह एक दिन शिक्षक बनने की उम्मीद करती है.
अफगानिस्तान में महिलाओं ने एक मांग की है. इसके तहत देश की महिलाएं सरकार पर दबाव बना रही हैं कि अमेरिका और तालिबान के बीच होने वाली शांति वार्ता में उन्हें भी शामिल किया जाए. अगर ऐसा नहीं किया गया तो बाद में उनकी आजादी और अधिकारों को दबाया जा सकता है.
अफगानिस्तान कई वर्षों से युद्ध की मार झेल रहा है. महिला सांसदों का कहना है कि उन्हें अपनी आजादी और आबरू की कीमत पर शांति नहीं चाहिए. इसलिए वे खौफजदा हैं, क्योंकि तालिबान के शासनकाल में कई महिला सांसदों ने उनका जुल्म सहा है. लिहाजा वे दोबारा उस दौर को नहीं जीना चाहती हैं. हालांकि अफगानिस्तान में सत्ता में आने को व्याकुल तालिबान फिलहाल महिलाओं पर पूर्व में लगाए प्रतिबंधों में ढील देने पर राजी हो गया है.
तालिबान दुनिया का सबसे क्रूरतम शासन था. 90 के दशक में तालिबान का उदय हुआ था. उस वक्त लोगों को देश में शांति स्थापित की उम्मीद थी. तालिबान अपने शासन के दौरान महिलाओं के दमन के लिए कुख्यात थे. तालिबान के शासन के दौरान महिलाओं को काफी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा.
घरेलू हिंसा की शिकार एक महिला ने बताया, 'जब मैंने उसे (मेरे पति) को देखा तो मैं चौंक गयी, क्योंकि मैं केवल छह साल की थी और मेरे लिए अपने माता-पिता और परिवार के साथ रहने का समय था, शादी करने का नहीं. मैं अकेला महसूस कर रही थी, डर गई थी. और मैं बस रो रही थी और रो रही थी.
एक महिला कार्यकर्ता का कहना है कि हमें इंतजार नहीं करना चाहिए, कोई आकर चांदी की थाली में हमारे अधिकारों की पेशकश करे, जैसे 1996 में तालिबान के दौरान हुआ था. इसलिए यही समय है कि हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए, हमें अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना चाहिए, हम अफगानी महिंलाओं की आवाज सुनने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को आगे बढ़ना चाहिए. हम पीछे नहीं हटेंगे.