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विशेष : अमेरिका का डब्ल्यूएचओ से संबंध तोड़ने का क्या पड़ेगा प्रभाव?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीते दिनों यह कहते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के साथ अमेरिका के संबंधों को तोड़ने की घोषणा की थी कि डब्ल्यूएचओ पूरी तरह से चीन के नियंत्रण में है और चीनी अधिकारियों द्वारा पहली बार वायरस पाए जाने पर उसने डब्ल्यूएचओ पर दुनिया को गुमराह करने के लिए दबाव बनाया था. पूर्व में यूनेस्को और यूएनएचआरसी से भी हट चुके अमेरिका के इस नए कदम का डब्ल्यूएचओ और उसके अन्य सदस्य देशों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इस मसले पर संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व स्थाई प्रतिनिधि, राजदूत अशोक मुखर्जी ने अपनी राय जाहिर की है.

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Published : Jun 1, 2020, 6:08 PM IST

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गत 29 मई को ह्वाइट हाउस में आयोजित एक प्रेस वार्ता के दौरान घोषणा की थी कि संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के साथ अपने संबंधों को समाप्त करेगा और उसे दी जाने वाली निधियों को दुनियाभर में पुनर्निर्देशित करेगा व तत्काल वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य आवश्यकताओं को योगदान देगा. इस निर्णय के पीछे साफ तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की 'अगले 30 दिनों के भीतर पर्याप्त सुधार कर पाने की' असमर्थता थी, जिसकी मांग एक सप्ताह पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक को पत्र द्वारा चेतावनी देकर राष्ट्रपति ट्रंप ने की थी. संयुक्त राज्य अमेरिका की घरेलू प्राथमिकताओं को एकपक्षीय रूप से आगे बढ़ाने के पक्ष में बहुपक्षीय सहयोग का निर्णय अमेरिकी प्रशासन के अब तक के रिकॉर्ड के अनुसार है.

अक्टूबर 2017 में संयुक्त राज्य अमेरिका संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) से बाहर निकल गया, जिसका गठन नवंबर 1945 में किया गया था. प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक और यूनेस्को के पहले प्रशासनिक बोर्ड के सदस्य, आर्कीबाल्ड मैकलेश (Archibald MacLeish) ने यूनेस्को के संविधान की प्रस्तावना लिखी थी, जिसमें इस वाक्य, 'चूंकि युद्ध मनुष्यों के मन में आरंभ होते हैं, तब मनुष्यों के मन में ही शांति के रक्षात्मक उपाय निर्मीत किए जाने चाहिए,' को शामिल किया गया था. ट्रंप प्रशासन द्वारा यूनेस्को छोड़ने का कारण कथित तौर पर 'यूनेस्को में बढ़ते बकाया, संगठन में मूलभूत सुधार की आवश्यकता और यूनेस्को में इजराइल विरोधी पूर्वाग्रह को जारी रखना' था.

जून 2018 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) से अपना समर्थन वापस ले लिया था, जिसे सितंबर 2005 में संयुक्त राष्ट्र की 60वीं वर्षगांठ शिखर सम्मेलन द्वारा सर्वसम्मति से बनाया गया था. हालांकि, मई 2006 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में (इजराइल, पलाऊ और मार्शल द्वीप समूह के साथ मिलकर) एक प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया था क्योंकि अमेरिका को लगता था कि जो देश मानवाधिकार परिषद के विचार में 'मानवाधिकार हनन के मामलों में सबसे खराब' थे उनको सदस्य चुने जाने से नहीं रोका गया था.

2006-2009 के दौरान यूएनएचआरसी ने अपने कामकाजी तरीकों और नियमों को तैयार किया, जिसमें 'फिलिस्तीन में मानवाधिकार की स्थिति और अन्य कब्जे वाले अरब क्षेत्रों पर एजेंडा 7' शामिल हैं. 2006 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस अहम समय के दौरान अनुपस्थित रहने का विकल्प चुना. यह तब था, जब एजेंडा 7 के संदर्भ में इजराइल से संबंधित मुद्दों पर यूएनएचआरसी द्वारा बातचीत की गई थी. यह कुछ हद तक विडंबनापूर्ण था क्योंकि ट्रंप प्रशासन ने 47 सदस्यीय निकाय को 2017-2019 की अवधि के लिए चुने जाने के बाद छोड़ने का मुख्य कारण यह बताया कि मानवाधिकार परिषद 'इजराइल के खिलाफ जीर्ण पूर्वाग्रह' से ग्रस्त है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मामले में यह स्पष्ट नहीं है कि ट्रंप प्रशासन ने 193 देशों के संगठन को छोड़ने का निर्णय लेने से पहले किन ठोस सुधारों की मांग की थी. अपने वक्तव्य में राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन पूरी तरह से चीन के नियंत्रण में है और चीनी अधिकारीयों द्वारा पहली बार वायरस पाए जाने पर उसने डब्ल्यूएचओ पर दुनिया को गुमराह करने के लिए दबाव बनाया था. फिर भी 24 जनवरी, 2020 को राष्ट्रपति ट्रंप ने ट्वीट कर कहा कि चीन कोरोना वायरस को रोकने के लिए बहुत मेहनत कर रहा है. 29 फरवरी, 2020 को अपने कोरोना वायरस पर हुई प्रेस वार्ता में राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा था कि चीन जबरदस्त प्रगति कर रहा है.

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विश्व स्वास्थ्य संगठन की समयावधि पर नजर डालने से पता चलता है कि चीन द्वारा 31 दिसंबर 2019 को वुहान में निमोनिया के पहले सामूहिक मामलों की सूचना देने के एक दिन बाद, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चीन की इस स्थिति से निबटने में मदद करने के लिए एक हादसा प्रबंधन सहायता दल का गठन किया. संयुक्त राज्य अमेरिका 2018-2021 की अवधि के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के 34-देशों के कार्यकारी बोर्ड का एक निर्वाचित सदस्य है. बोर्ड 3-6 फरवरी 2020 के बीच मिला और उसने विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक को कोविड-19 के विषय में जानकारी दी. एडमिरल गिरिर 22 मई 2020 को पुष्टि होने के बाद पहली बार कार्यकारी बोर्ड की बैठक में शामिल हुए. उन्होंने 'निष्पक्ष, स्वतंत्र और व्यापक समीक्षा' के आधार पर 'इस तरह की महामारी पर अंकुश सुनिश्चित करने के लिए' सुधारों पर ध्यान केंद्रित करने की बात कही.

राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन को छोड़ने की घोषणा उन दो शर्तों के तहत हुई होगी, जिनका उल्लेख 1948 में अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी में मौजूद है, जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन में प्रवेश किया था.

पहली, छोड़ने से पहले एक साल का नोटिस देना होगा, इसका मतलब यह हुआ कि 2021 के मध्य में वह ऐसा कर सकता है. दूसरी, वर्तमान वित्तीय चक्र के लिए विश्व स्वास्थय संगठन के प्रति उसे अपने वित्तीय दायित्वों को पूरा करना होगा. इसका मतलब यह है कि राष्ट्रपति ट्रंप के इस कथन के बावजूद कि संयुक्त राज्य अमेरिका उन फंडों को दुनियाभर में पुनर्निर्देशित करेगा और योग्य, वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य आवश्यकताओं में योगदान देगा,' यह संयुक्त राज्य अमेरिका के औपचारिक रूप से विश्व स्वास्थय संगठन को छोड़ने के बाद ही होगा.

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विश्व स्वास्थय संगठन के आंकड़ों के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका ने 2020-21 के दौरान संगठन के लिए अपने स्वैच्छिक योगदान के व अपने अनिवार्य योगदान के रूप में क्रमश: $236.9 मिलियन और $656 मिलियन डॉलर का भुगतान करने का वचन दिया है. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन के वार्षिक परिचालन बजट का अब तक का सबसे बड़ा एकल अंशदाता (लगभग 22%) है. इसके योगदान का बड़ा हिस्सा पोलियो उन्मूलन (27.4%), इसके बाद आवश्यक स्वास्थ्य और पोषण संबंधी सेवाओं (17.4%), वैक्सीन-निवारक बीमारियों (7.7%) और तपेदिक उन्मूलन (5.74%) के लिए काम में आता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन से संयुक्त राज्य अमेरिका का निकलना, उसके अन्य सदस्य देशों को वैश्विक स्वास्थ्य मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बनाए रखने का नेतृत्व करने का अवसर प्रदान करेगा. उनका ध्यान कोविड-19 का मुकाबला करने के लिए वैक्सीन का विकास और वितरण करने पर केंद्रित होगा.

जिनेवा में विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया विश्व स्वास्थ्य सभा की बैठक में यूरोपीय संघ और चीन ने सफलतापूर्वक इस तरह की भूमिका का प्रस्ताव रखा था. भारत सहित 130 देशों द्वारा प्रायोजित और 19 मई 2020 को विश्व स्वास्थ्य सभा द्वारा पारित किए गए कोविड-19 संकल्प में 'कोविड-19 का सामना करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रमुख नेतृत्वकारी भूमिका' को विशेष रूप से बरकरार रखा गया, जिसमें दवाओं, वैक्सीन और चिकित्सा उपकरणों के लिए वैश्विक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग को उत्प्रेरित करना होगा.' इसमें स्पष्ट किया गया कि किसी भी वैक्सीन की पहुंच 'पारदर्शी न्यायसंगत और समय पर' होनी चाहिए.

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ट्रंप प्रशासन की बहुपक्षीयता और उसके पूर्ववर्तियों के दृष्टिकोण के बीच मूलभूत अंतर उपयुक्त रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के स्थाई प्रतिनिधि सुसान राइस द्वारा मई, 2010 को मानवाधिकार परिषद में दिए बयान से परिलक्षित होता है. उन्होंने कहा कि 'संगठन को आकार देने और सुधारने के लिए भीतर से काम करना बेहतर है ...बजाय इसके हाशिये पर रहकर और उसे नकार कर.'

विश्व स्वास्थ्य संगठन-समन्वित वैश्विक स्वास्थ्य गतिविधियों के संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा वित्तपोषण की वापसी का जमीनी स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. यहां तक कि 29 मई 2020 को घोषणा से पहले, संयुक्त राज्य अमेरिका ने कोविड-19 और पोलियो का मुकाबला करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य गतिविधियों के वित्तपोषण के लिए सात देशों को अपनी प्राथमिकताओं के रूप में पहचान की थी. इनमें अफगानिस्तान, मिस्र, लीबिया, पाकिस्तान, सीरिया, सूडान और तुर्की शामिल हैं, जिनके लिए अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने अपने विश्व स्वाथ्य संगठन वित्तपोषण में किसी भी अमेरिकी कटौती से छूट की सिफारिश की थी.

भारत में कोविड-19 का मुकाबला करने की अज्ञात चुनौतियों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र के साथ मजबूत जुड़ाव की आवश्यकता होगी. भारत को दो दशक पहले एचआईवी/एड्स संकट को कम करने में इस तरह के अंतरराष्ट्रीय सहयोग की प्रभावशीलता का अनुभव है. उस समय एक भारतीय दवा कंपनी (सिप्ला) को एचआईवी / एड्स वायरस का मुकाबला करने के लिए सस्ती दवा तक पहुंच प्रदान करने के लिए जेनेरिक दवाओं का उपयोग करने की अनुमति दी गई थी.

भारत के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने मई 2020 से एक साल के कार्यकाल के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी बोर्ड का अध्यक्ष पद संभाला. उन्हें मिली यह जिम्मेदारी कोविड-19 का मुकाबला करने, राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने व अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बनाए रखने की भारत की क्षमता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी.

(संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व स्थाई प्रतिनिधि, राजदूत अशोक मुखर्जी द्वारा लिखित)

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