वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ पराई जाणे रे.
जब हम वैष्णव जन वाला भजन सुनते हैं, भले ही वह किसी भी भाषा में हो तो महात्मा गांधी की तस्वीर आंखों के सामने तैरने लगती है. गुजरात के संत नरसिंह मेहता का इस भजन को बापू ने इस तरह आत्मसात किया कि अब दोनों एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं. सच यह है कि जब महात्मा गांधी 1869 में पैदा हुए, उस समय तक 'वैष्णव जन' भजन के सुर चार शताब्दी से गुजरात के सौराष्ट्र में तैर रहे थे. नरसिंह मेहता ने इस भजन को लिखा नहीं था, मगर इसकी पवित्रता के कारण मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी 400 साल का सफर पूरा कर चुका था. बताया जाता है कि 15वीं शताब्दी में कवि नरसी मेहता ने इसकी रचना की थी.
फाइल वीडियो, गांधी जयंती पर ईटीवी भारत की प्रस्तुति साबरमती के आश्रम में सभी धर्मों के लोग गाते थे 'वैष्णव जन'
महात्मा गांधी की जीवनी लिखने वाले नारायण देसाई के मुताबिक भले ही 1920 में यह भजन साबरमती आश्रम में सुबह की दिनचर्या से जुड़ा मगर उससे पहले ही गांधी के साथ इसने 7000 किलोमीटर दूर दक्षिण अफ्रीका की यात्रा तय कर ली थी. प्रसिद्ध गांधीवादी नारायण देसाई अपनी किताब मेरे गांधी में लिखते हैं कि अलग- अलग धर्म मानने वाले आश्रमवासी उत्साह के साथ अक्सर बापू का प्रिय भजन 'वैष्णव जन' गाते थे. वे पूरी तरह संतुष्ट थे कि यह गीत उनके अपने आदर्श नायक के गुणों का वर्णन करता है. इससे गांधी के इस विश्वास की पुष्टि होती है कि सभी धर्मों की नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा मूल रूप से समान है. नारायण देसाई राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसाई के बेटे थे. उन्होंने जीवन के शुरुआती 23 साल गांधीजी के आश्रमों में बिताए थे.
नमक सत्याग्रह के दौरान भी गांधी अपना प्रिय भजन गाते थे दांडी यात्रा के दौरान भी 'वैष्णव जन' गुनगुनाते रहे गांधी
'वैष्णव जन' भजन महात्मा गांधी के जीवन काल के दौरान लोकप्रिय हो गया. इसे सबसे पहले गोटुवद्यम नारायण अयंगर जैसे गायकों और वादकों ने उनके साबरमती आश्रम में भजन के रूप में संगीतबद्ध किया. उसके बाद यह एकतारा, झांझ और मजीरे की थाप पर रोज साबरमती आश्रम में गूंजता रहा. साथ ही स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इस भजन ने धर्म और जाति के भेदभाव को खत्म कर दिया. नारायण देसाई गांधी की जीवनी में लिखा है कि 1930 में दांडी मार्च के दौरान बापू ने 24 दिन में 340 किलोमीटर की यात्रा तय की थी. इस दौरान गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानी 'वैष्णव जन' गुनगुनाते रहे. दांडी मार्च शुरू होते ही सहयोगी काका कालेलकर ने गांधी को छड़ी सौंपी थी और दूसरे सहयोगी नारायण खरे ने 'वैष्णव जन' गाकर सुनाया था.
साबरमती आश्रम में बापू और कस्तूरबा गांधी आखिर गांधी ने इस भजन को क्यों चुना ?
'वैष्णव जन' के रचयिता नरसी मेहता या नरसी भगत गुजरात के लोकप्रिय वैष्णव मत के संत थे. उन्होंने यह भजन वैष्णववाद के अनुयायी के जीवन, आदर्श और मानसिकता के बारे में लिखा था. माना जाता है कि नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़ के समीपवर्ती तलाजा गांव में वर्ष 1414 में हुआ था. वह हमेशा कृष्ण की भक्ति में तल्लीन रहते थे. वह छुआछूत नहीं मानते थे और हरिजनों की बस्ती में जाकर उनके साथ कीर्तन किया करते थे. इससे बिरादरी ने उनका बहिष्कार तक कर दिया था, पर वे अपने मत से डिगे नहीं. गांधी ने इस भजन के साथ सामाजिक संदेश देने की कोशिश भी की और नरसी से प्रभावित होकर दलितों के लिए 'हरिजन' शब्द को चुना था. महात्मा गांधी ने इस महान गीत की असाधारण उत्कृष्टता को पहचाना और इसे दुनिया में अमर बना दिया. खुद महात्मा गांधी इसे सम्मान के साथ करुणामय जीवन जीने का प्रेरक मानते थे.
साबरमती आश्रम, जहां वैष्णव जन भजन रोज सुबह गाया जाता है गांधी के बाद भी 'वैष्णव जन' संगीत प्रेमियों का पसंदीदा भजन बना रहा. आजादी के बाद वैष्णव जन सरकारी समारोहों का एथेंम बना. बाद में देश के कई प्रसिद्ध गायकों ने इसे अपने सुरों से सजाया संवारा. आज यह दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच गया है. मूलरूप से गुजराती में लिखे इस भजन का गुजरात साहित्य अकादमी ने हिंदी और अन्य भाषा में अनुवाद किया है. अब जहां गांधी हैं, वहां 'वैष्णव जन' भी है.
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वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड़ परायी जाणे रे
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड़ परायी जाणे रे
पर दुख्खे उपकार करे तोये, मन अभिमान ना आणे रे
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे
सकळ लोक मान सहुने, वंदे नींदा न करे केनी रे
वाच काछ मन निश्चळ राखे धन धन जननी तेनी रे
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे
सम दृष्टी ने तृष्णा त्यागी पर स्त्री जेने मात रे
जिह्वा थकी असत्य ना बोले पर धन नव झाली हाथ रे
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड़ परायी जाणे रे
मोह माया व्यापे नही जेने द्रिढ़ वैराग्य जेना मन मान रे
राम नाम सुन ताळी लागी सकळ तिरथ तेना तन मान रे
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड़ परायी जाणे रे
वण लोभी ने कपट- रहित छे काम क्रोध निवार्या रे
भणे नरसैय्यो तेनुन दर्शन कर्ता कुळ एकोतेर तारया रे
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे
पर दुख्खे उपकार करे तोये मन अभिमान ना आणे रे
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे