नई दिल्ली/गाजियाबाद:अपनी आंखों के सामने अपने बच्चों को भूखा देखने का दर्द क्या होता है, यह एक पिता और मां से बेहतर कोई नहीं समझ सकता. लेकिन मजबूरी इस दर्द को कम नहीं होने देती. जी हां हम उस मजबूरी की बात कर रहे हैं, जो कोरोना संकट के बाद फिर से पैदा होने लगी है. साल 2020 में प्रवासी मजदूरों का दर्द सब ने देखा. इस बार उनमें से अधिकतर के पास वैसा हौसला भी नहीं है. जिस रोजी-रोटी की आस में दिल्ली-एनसीआर में वापस आए थे, उस रोजी-रोटी का संकट फिर से गहराने लगा है. गाजियाबाद में 3 बच्चों और माता-पिता के एक परिवार की जो दास्तान हम आपको बताने जा रहे हैं, वह कुछ ऐसी ही दर्द भरी है.
कर्फ्यू ने फिर तोड़ी छोटे विक्रेताओं की कमर
अब सिर्फ भीख मांगने का रास्ता
तीन मासूम बच्चे, पत्नी और माता पिता समेत पूरे घर को चलाने की जिम्मेदारी निभाने वाले मनीष गुप्ता के सामने आर्थिक संकट के बादल गहरा गए हैं. मनीष का कहना है कि अब शायद भीख मांगने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा. गाजियाबाद के रहने वाले इस परिवार की दास्तान आपकी आंखों में भी आंसू ला देगी. मनीष का कहना है कि उनका घर साप्ताहिक बाजार में छोटी-मोटी चीजें बेच कर चलता है. लेकिन हाल ही में प्रशासन ने साप्ताहिक बाजारों पर रोक लगा दी है.
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बीते साल भी कोरोना के वजह से परिवार का गुजारा चलाना काफी कठिन था, लेकिन वो साल बीता तो कुछ उम्मीद जागी. लेकिन एक बार फिर से कोरोना संकट ने साप्ताहिक बाजार बंद करवा दिए हैं. मनीष के सामने तीन बच्चों की पढ़ाई के अलावा पूरे परिवार को संभालने की जिम्मेदारी है.
सिर्फ साप्ताहिक बाजार से चलता है घर
पिछले 18 सालों से मनीष साप्ताहिक बाजार लगाकर इस जिम्मेदारी को बखूबी निभा रहे थे, लेकिन अब मनीष का हौसला टूट गया है. मनीष के घर में तीन बच्चे पत्नी और माता-पिता हैं. सप्ताह में दो बार बाजार लगाकर जो कमाई आती है, उसी से पूरे हफ्ते घर चलता है. लेकिन सवाल इस बात का है कि अगले हफ्ते क्या होगा.
मनीष की तरह दर्जनों परिवार के सामने संकट
मनीष जैसे ना जाने कितने ऐसे लोग इसी संकट से दो-चार हो रहे हैं. जिनके पास रोजी रोटी का कोई अन्य जरिया नहीं है. ऐसे में इन लोगों के मासूम बच्चों का ये दर्द भी चीख चीख कर पूछ रहा है कि इसमे हमारा क्या कसूर है. सवाल यह भी है कि अगले हफ्ते घर में चूल्हा कैसे जलेगा. मनीष अपने होम टाउन भी वापस नहीं जाना चाहते हैं क्योंकि वहां पर भी उनके पास कोई काम धंधा नहीं है. ऐसे में मजबूरी यही है कि उन्हें अपनी ही आंखों के सामने अपने परिवार को इस संकट में देखने के लिए मजबूर होना होगा.