नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि कोविड-19 महामारी को देखते हुये घोषित रोक अवधि के दौरान स्थगित कर्ज किस्तों पर ब्याज पर ब्याज वसूलने का कोई तुक नहीं बनता है.
न्यायमूर्ति अशोक भूषण के नेतृत्व वाली पीठ ने कहा कि एक बार स्थगन तय कर दिये जाने के बाद इसका वांछित उद्देश्य पूरा होना चाहिये. ऐसे में सरकार को सब कुछ बैंकों पर नहीं छोड़कर मामले में खुद हस्तक्षेप करने पर विचार करना चाहिये. पीठ में न्यायमूर्ति एस के कौल और न्यायमूर्ति एमआर शाह भी शामिल हैं.
पीठ का कहना है, "जब एक बार स्थगन तय कर दिया गया है तब उसे उसके उद्देश्य को पूरा करना चाहिये. ऐसे में हमें ब्याज के ऊपर ब्याज वसूले जाने की कोई तुक नजर नहीं आती है."
पीठ ने आगरा निवासी गजेन्द्र शर्मा की याचिका पर सुनवाई करते हुये यह कहा. गजेन्द्र शर्मा ने रिजर्व बैंक की 27 मार्च की अधिसूचना के उस हिस्से को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर करने के लिये निर्देश देने का आग्रह किया है जिसमें स्थगन अवधि के दौरान कर्ज राशि पर ब्याज वसूले जाने की बात कही गई है.
इससे याचिकाकर्ता जो कि एक कर्जदार भी है का कहना है कि उसके समक्ष कठिनाई पैदा होती है. इससे उसको भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में दिये गये ‘जीवन के अधिकार’ की गारंटी मामले में रुकावट आड़े आती है.
केन्द्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक की तरफ से न्यायालय में पेश सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि ब्याज को पूरी तरह से माफ करना बैंकों के लिये आसान नहीं होगा क्योंकि बैंकों को अपने जमाकर्ता ग्राहकों को ब्याज का भुगतान करना होता है.
मेहता ने पीठ से कहा, "बैंकों में 133 लाख करोड़ रुपये की राशि जमा है जिसपर बैंकों को ब्याज का भुगतान करना होता है. ऐसे में कर्ज भुगतान पर ब्याज माफ करने का इनके कामकाज पर गहरा असर पड़ेगा."
पीठ ने मामले की अगली सुनवाई अगस्त के पहले सप्ताह में तय करते हुये केन्द्र और रिजर्व बैंक से स्थिति की समीक्षा करने को कहा है, साथ ही भारतीय बैंक संघ से कहा है कि क्या वह इस बीच रिण किस्त भुगतान के स्थगन मामले में कोई नये दिशानिर्देश ला सकते हैं.
तुषार मेहता ने कहा रोक अवधि के दौरान कर्ज पर ब्याज भुगतान को पूरी तरह से माफ कर दिये जाने से बैंकों की वित्तीय स्थिरता जोखिम में पड़ सकती है और इससे बैंकों के जमाधारकों के हितों को नुकसान पहुंच सकता है.