हैदराबाद: मंगलवार को जारी आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि भारत का थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति जून में सालाना आधार पर -1.81% थी. जिसका मतलब है कि देश में थोक मूल्य महंगाई एक साल पहले की तुलना में घटी है.
इस बीच उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खुदरा मुद्रास्फीति जून में 6.09% थी जो उपभोक्ता स्तर पर उच्च कीमतों को दर्शाती है. यह संख्या यहां महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारतीय रिज़र्व बैंक की खुदरा मुद्रास्फीति के लिए ऊपरी सीमा से ज्यादा है. आरबीआई का लक्ष्य रहता है कि खुदरा महंगाई दर 4% पर रहे. इसमें 2% की कमी या बढ़ोतरी हो सकती है.
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दो प्रकार की मुद्रास्फीति दरों के बीच इस विशाल अंतर का अर्थ है कि बाजार की स्थिति ऐसी है कि थोक स्तर पर कीमतों में गिरावट हैं और खुदरा कीमतें यानि आम लोगों तक पहुंचने में यह महंगा हो जा रहा है. हालांकि, यह पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि विभिन्न अन्य कारक के कारण डब्ल्यूपीआई और सीपीआई के आंकड़ों में अंतर पैदा होता है. इस तरह के विचलन के पीछे तीन प्रमुख कारणों हैं.
1. सूचकांकों का गठन:दरअसल, ऐसा होने की वजह यह है कि खुदरा महंगाई दर में खाद्य पदार्थों की हिस्सेदारी 54.2 फीसदी की है, जबकि थोक महंगाई दर में यह हिस्सेदारी 15.3 फीसदी है. ऐसे में साफ है कि खाद्य पदार्थों की कीमतों में बदलाव का बड़ा असर खुदरा महंगाई पर ही देखने को मिलेगा.
इसी तरह फ्यूल और पावर कैटिगरी की थोक महंगाई दर में हिस्सेदारी 13.2 फीसदी है, जोकि खुदरा महंगाई में हिस्सेदारी 7.94 फीसदी है. साथ ही, चिकित्सा एवं शिक्षा जैसे खर्च की महंगाई आदि ऐसी हैं जिनका खुदरा महंगाई दर के आकलन में ध्यान रखा जाता है, लेकिन थोक महंगाई दर के आकलन में नहीं.
इसका मतलब यह है कि किसी विशेष वस्तु या लेख की कीमतों में किसी भी वृद्धि का थोक और उपभोक्ता मुद्रास्फीति पर अलग-अलग प्रभाव पड़ेगा.