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भारत के आर्थिक सुधार में रोड़ा बनता अमेरिका-ईरान तनाव

भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले छह वर्षों में अपनी सबसे धीमी गति से बढ़ रही है. इस बीच अमेरिका-ईरान तनाव ने देश के आर्थिक सुधार को और धीमा कर सकता है. पढ़िए पूरी रिपोर्ट.

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Published : Jan 5, 2020, 2:53 PM IST

भारत के आर्थिक सुधार में रोड़ा बनता अमेरिका-ईरान तनाव
भारत के आर्थिक सुधार में रोड़ा बनता अमेरिका-ईरान तनाव

हैदराबाद: अमेरिकी हमले में कासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद मध्य पूर्व में तनाव का माहौल है. ईरानी मेजर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या के कारण भारत सहित दुनिया भर के बाजार में मिला जुला रुख देखने को मिला. वहीं, कच्चे तेल के दाम इस घटना के बाद चार प्रतिशत से अधिक चढ़ गए.

शुक्रवार को कच्चे तेल की कीमतों ने 68 डॉलर प्रति बैरल को छू लिया. तेल की कीमतें तनाव बढ़ने के कारण और भी बढ़ सकती हैं.

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लेख प्रकाशन के समय तक कुछ खबरें आई थी की बीती देर रात बगदाद में अमेरिकी दूतावास पर ताबड़तोड़ राकेट दागे गए, ना सिर्फ दूतावास बल्कि अमेरिकी फौजी बेस पर भी हमला किया गया. इस हमले में किसी के मारे जाने की खबर नहीं है लेकिन इसे कासिम सुलेमानी पर हमले से जोड़कर देखा जा रहा है.

इसके बाद अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान को सीधी चेतावनी देते हुए कहा है कि यूएस आर्मी ने ईरान के 52 ठिकानों की पहचान कर ली है, और अगर ईरान किसी भी अमेरिकी संपत्ति या नागरिक पर हमला करता है तो इन पर बहुत तेजी से और बहुत विध्वंसक हमला करेगा.

तेल आयात के लिए उच्च निर्भरता के कारण भारत हमेशा तेल समृद्ध क्षेत्रों (सऊदी अरब, ईरान, इराक) में तनाव के कारण फंस जाता है.

एक अनुमान के अनुसार भारत आयात के माध्यम से अपनी कच्चे तेल की जरूरतों का 80% पूरा करता है. नतीजतन आपूर्ति श्रृंखला में गड़बड़ी उसकी विकास योजनाओं में बाधक बनती हैं.

अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद ईरान अब एक ऊर्जा आपूर्तिकर्ता नहीं है, लेकिन वास्तविक खतरा इस तथ्य से निकलता है कि यह अपने पड़ोसियों सऊदी अरब और इराक के साथ दुश्मनी साझा करता है, जो भारत के लिए प्रमुख ऊर्जा आपूर्तिकर्ता हैं.

पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन में इराक दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक है. एक अनुमान के अनुसार इसका बेसरा बंदरगाह सितंबर में प्रति दिन 3.5 मिलियन बैरल तेल का निर्यात करता था.

भारत की चिंता
भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले छह वर्षों में अपनी सबसे धीमी गति से बढ़ रही है. तिमाही जीडीपी वृद्धि जो कि एक प्रमुख मैक्रो-लेवल आर्थिक संकेतक है वह नीचे की ओर है और अप्रैल-जून 2018 में 8% से घटकर जुलाई-सितंबर 2019 में 4.5% रह गई है.

अगर आने वाले हफ्तों में मौजूदा भू-राजनीतिक तनाव जारी रहता है, तो कच्चा तेल 80 डॉलर प्रति बैरल को छू जाएगा और खुदरा पेट्रोल की कीमतें आने वाले महीनों में 90 रुपये प्रति लीटर तक जा सकती हैं.

चूंकि डीजल एक प्रमुख परिवहन ईंधन है, इसलिए नवंबर में सब्जियों की समग्र कीमतें पहले से अधिक 35% मूल्य वृद्धि से आगे बढ़ जाएंगी. भारतीय रिजर्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार, तेल की कीमतों में 10 डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी से उपभोक्ता मुद्रास्फीति में 0.49% की वृद्धि होगी.

आरबीआई की स्ट्रेटेजिक रिसर्च यूनिट के शोधकर्ता युगल सौरभ घोष और शेखर तोमर ने यह भी दिखाया कि कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि से चालू खाता घाटा एक हद तक बिगड़ जाता है जिसकी भरपाई उच्च सकल घरेलू उत्पाद के जरिए नहीं की जा सकती.

नतीजतन, उच्च तेल की कीमतें अर्थव्यवस्था को गतिरोध (विकास ठहराव + उच्च मुद्रास्फीति) मोड में स्थानांतरित कर देंगी. यह सेंट्रल बैंक को तंग तरलता और महंगी ईएमआई के परिणामस्वरूप ब्याज दरों में बढ़ोतरी के लिए मजबूर करेगा.

इसके अलावा उच्च सीएडी से जीडीपी विनिमय दर को प्रभावित करेगा. अमेरिकी हमले की खबर पर रुपया एक महीने के निचले स्तर पर लुढ़क गया. यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो यह हमारे आयात को महंगा कर देगा.

ओएमसी पर प्रभाव
तेल से संबंधित शेयरों में भी शुक्रवार को गिरावट दर्ज की गई. उदाहरण के लिए हिंदुस्तान पेट्रोलियम जैसी तेल विपणन कंपनियों के शेयर बाजार में 2% से अधिक की गिरावट आई है, जबकि भारत पेट्रोलियम 479.4 रुपये के इंट्रा-डे के निचले स्तर के लिए 1.6 प्रतिशत नीचे है और इंद्रप्रस्थ गैस लिमिटेड और इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के शेयर भी लुढ़क गए हैं.

ओएमसी की क्रूड बास्केट में 24 प्रतिशत और 19 प्रतिशत क्रूड इराक और सऊदी अरब से क्रमशः जनवरी 2019 से नवंबर 19 तक आया है, जबकि रिलायंस इंडस्ट्रीज ने इन दोनों देशों से कुल क्रूड का लगभग 38 प्रतिशत आयात किया.

सरकार के लिए नीति विकल्प
मूल्य-आधारित नीतियों की प्रतिक्रियाएं यह निर्धारित करती हैं कि समाज में विभिन्न समूह किस हद तक उच्च मूल्यों की लागत वहन करते हैं. प्रतिक्रियाएं तीन व्यापक रणनीतियों का मिश्रण हो सकती हैं - किसी दिए गए उत्पाद पर पूर्ण मूल्य वृद्धि को उपयोगकर्ताओं पर डाल दें, बजट के माध्यम से शामिल सब्सिडी या कर कटौती को वित्त दें या फिर अंत में तेल कंपनियों के मुनाफे को कम करें.

जो सरकारें अपने उच्च राजकोषीय बोझ के कारण पेट्रोलियम उत्पादों पर सब्सिडी को समाप्त करने जैसी अलोकप्रिय नीतियों को लागू करना चाहती हैं, उन्हें चौतरफा विरोध का सामना करना पड़ता है.

(लेखक - डॉ हिरण्मय राय, एसोसिएट प्रोफेसर और अर्थशास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विभाग के प्रमुख, स्कूल ऑफ बिजनेस, यूपीईएस, देहरादून. ये लेखक व्यक्तिगत विचार हैं)

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