हैदराबाद: डाटा, देश के प्राकृतिक और राष्ट्रीय संसाधन के ढांचे से पैदा होता है और इसे ध्यान से खर्च करने की ज़रूरत है. सब जगह फैल चुके इंटरनेट की शुरुआत से दुनिया एक ज्ञान का भंडार बन गई है, क्योंकि इंटरनेट देश दुनिया की सीमाओं से परे बिना रुकावट जानकारियां पहुंचाता है.
यह, शिक्षा, स्वास्थ्य, अनुसंधान, ब्रह्मांड के शोध, व्यापार आदि या मानव सभ्यता से जुड़े तक़रीबन सभी पहलुओं के लिये ज़रूरी हो गया है. इसके कारण आर्थिक विकास और ग़रीबी उन्मूलन में काफ़ी मदद मिली है.
हालांकि, शुरुआती दौर में दूरसंचार क्रांति का मक़सद था लोगों तक आवाज़ का आदान प्रदान करना, लेकिन अब सारा ध्यान हाई स्पीड डाटा पहुंचाने पर है. अक्टूबर 2019 के इन आंकड़ों पर नज़र डालते हैं:
मापदंड | विश्व | भारत |
जनसंख्या | 7.8 बिलियन | 1.32बिलियन(2nd) |
मोबाइल फ़ोन उपभोक्ता | 5.13बिलियन | 1.17 बिलियन (2nd) |
स्मार्टफ़ोन उपभोक्ता | 3.3 बिलियन | 345 मिलियन (2nd) |
इंटरनेट उपभोक्ता | 3.2 बिलियन | 627मिलियन(2nd) |
फ़ेसबुक उपभोक्ता | 2.45 बिलियन | 241 मिलियन (1st) |
यूट्यूब उपभोक्ता | 2.0बिलियन | 265 मिलियन (1st) |
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व्हाट्स एप्प उपभोक्ता
1.50 बिलियन | 400मिलियन(1st) | ट्विटर उपभोक्ता | 330 मिलियन | 7.9 मिलियन (8th) |
सोशल मीडिया व्यक्ति को जानकार बनाती है लेकिन समाज को बांटती भी है. डाटा की लत इस स्तर तक पहुंच चुकी है, कि जम्मू कश्मीर में आर्टिकल 370 के हटने के बाद, ज़्यादातर ज़ोर इंटरनेट सेवाओं की बहाली पर है न कि अन्य सेवाओं पर. पिछले सात दशकों से भारत में जितने घरों में बिजली और गैस के कनेक्शन जुड़े वो संख्या पिछले दो सालो में इंटरनेट से जुड़ने वाले घरों की तादाद से काफ़ी कम है. लेकिन पिछली मोदी सरकार के लगातार प्रयासों के कारण इस फ़ासले को कम करने में काफ़ी मदद मिली.
इंटरनेट के ग़लत इस्तेमाल के कारण इससे होने वाले नुक़सान इसके फायदों को छुपा लेते हैं. आईओटी की बड़ी संख्या के कारण, करोड़ों की संख्या में इस्तेमाल में आने वाले सेंसर इतनी ऊर्जा इस्तेमाल करते हैं कि इनसे होने वाले कार्बन उत्सर्जन पर क़ाबू पाना नामुमकिन हो जाता है.
क़रीब 8 मिलियन डाटा सेंटरों का इस्तेमाल डाटा ट्रांसफ़र और स्टोरेज के लिये किया जाता है, और इनमें इस्तेमाल होने वाले राउटर, स्विच, सुरक्षा उपकरण आदि इतनी गर्मी पैदा करते हैं जिसे ठंडा करने के लिये अतिरिक्त मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ता है.
मौजूदा समय में इंटरनेट, दुनिया में ऊर्जा खपत का 6-10% हिस्सेदार है और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का 4% पैदा करता है. यह सालाना 5-7% तक बढ़ जाता है. इंटरनेट के इस्तेमाल से बचा नहीं जा सकता है, लेकिन इसके इस्तेमाल के लिये हमें अपने गृह को ख़त्म करने की भी ज़रूरत नहीं है. डाटा शोध की तकनीकों के साथ मिलकर सोशल मीडिया, देश की सरकारों के अस्तित्व का फ़ैसला करने की ताक़त रखती है.
नागरिक विरोधों के दौरान, जनतंत्र देश की सरकारों को मजबूरी में सोशल मीडिया पर रोक लगानी पड़ती है. राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में भी सरकारें अपने आप को सोशल मीडिया का सामना करने में नाकाम पा रही हैं. अमरीका की ख़ुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई, एप्पल से प्राइवेसी, और भारत सरकार व्हॉट्सएप्प से एंड टू एंड एंक्रिप्शन के चलते जानकारियां हासिल करने में जूझ रही हैं. सस्ते डाटा के कारण सोशल मीडिया के लिये लगाव से न केवल समाजिक सौहार्द ख़राब होता है बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी ख़तरा मंडराता है.
भारतीय परिवेश
शुरुआत में कंपनियां स्वस्थ मुक़ाबले का बहाना बनाकर सेवाओं के फ़्लोर प्राइस तय किये जाने के पक्ष में नहीं थीं. लेकिन, इसके चलते कंपनियों की कमाई में हुई भारी गिरावट और एजीआर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद, वोडाफ़ोन-आइडिया और एयरटेल ने सरकार से मांग की है कि आर्थिक संकट से गुजर रहे दूरसंचार उद्योग को उबारने के लिये दामों में इज़ाफ़ा किया जाये. कंपनियों ने अपने को ज़िंदा रखने की मजबूरी के चलते दामों में ख़ुद भी 40% तक का इज़ाफ़ा किया है.
एजीआर पर फ़ैसला दते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी दूरसंचार कंपनियों को सरकारी बकाया चुकाने का आदेश दिया तो, भारती एयरटेल ने कहा कि दूरसंचार उद्योग को समानता और संभाले जाने की ज़रूरत है. विडंबना है कि इन्हीं कंपनियों और आर-कॉम ने जल्द से जल्द अपना उपभोक्ता बेस बढ़ाने के लिये दामों के लिहाज़ से कई हथकंडे अपनाये हैं.
वाणिज्य का मूल सिद्धांत है कि, किसी भी उत्पाद को उसकी लागत से कम में नहीं बेचना चाहिये. लेकिन इन कंपनियों ने इसे भी दरकिनार कर दिया. सरकार और नियामक अभी तक इन कंपनियों को लेकर उदार रवैया रखे हुई थे, जिसके कारण सरकारी ख़ज़ाने को नुक़सान हो रहा था.
- लाइसेंस फ़ीस स्पेक्ट्रम के दाम, आदि को लेकर नीतियाँ इतनी उदार थी कि इससे सरकारी ख़ज़ाने को नुक़सान पहुंच रहा था.
- इन उदार दामों के बावजूद, एजीआर की गणना को लेकर दूरसंचार कंपनियों ने अदालतों में मामले दायर कर रखे थे, जिसके कारण यह मामले लंबित हो गये. 31 अक्टूबर 2019 तक, लाइसेंस फ़ीस को लेकर बकाया रक़म 92,000 करोड़ और एसयूसी की बकाया रक़म 55,000 करोड़ है. सुप्रीम कोर्ट के इन कंपनियों को इस रक़म को तुरंत चुकाने के आदेश के बावजूद सरकार ने इन कंपनियों को दो साल की मोहलत दे दी है.
- बाजार विरोधी दामों की जंग के चलते, कंपनियों की कमाई कम होती रही, और यह कंपनियां उधार के ल में फंसती चली गई, जिसके कारण कई बैंकों में एनपीए खाते खड़े हो गये.
- आर-कॉम द्वारा 49,000 करोड़ रुपये के क़रीब का दिवालियापन घोषित किया गया है और मौजूदा समय में लग रहा है कि इसमें से केवल 30% तक की ही वसूली की जा सकेगी.
- कई कंपनियों के इस क्षेत्र से निकलने और कई कंपनियों के विलय के कारण आर्थिक विवादों के मामलों में इजाफा हुआ और अब देश के दूरसंचार क्षेत्र में तीन ही कंपनियाँ बच गई है.
- बीएसएनएल और एमटीएनएल सरकारी कंपनियां होने की वजह से, नीति बनाने, कैप्क्स और ऑपेक्स आदि में एक समान हालात न होने के कारण जीवित रहने की लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं. इन्हें पुनर्जीवित करने के लिये केंद्र सरकार को 77,000 करोड़ की आर्थिक मदद देनी होगी और क़रीब 90,000 कर्मचारियों को वीआरएस दिलाना होगा.
- यह आश्चर्य की बात है कि एक तरफ़ केंद्र सरकार आयुष्मान योजना लाकर, 50 करोड़ नागरिकों तक स्वास्थ्य सेवाऐं पहुंचाने का लक्ष्य रखे है, वहीं बीएसएनएल अपने रिटायर कर्मियों को फंड की कमी का हवाला देकर पेंशन से दूर रखे है.
ट्राई के लिये सुझाव
हालांकि देर से ही सही, लेकिन ट्राई द्वारा दूरसंचार सेवाओं के लिये फ्लोर प्राइस रखने के लिये कंस्लटेशन पेपर लाना एक अच्छा कदम है. टीएसपी कंपनियों को क्यूओएस के मानकों के अनुसार बेहतर संचार सेवाऐं देने के लिये मुक़ाबला करना चाहिये और इसके लिये रेग्यूलेटर को दाम तय करने चाहिये.
अगर आंकड़ों का बारीकी से अध्ययन करें तो यह साफ़ दिखता है कि जहां पिछले 20 सालो में तेल से लेकर सभी ज़रूरी संसाधनों के दामों में दोगुना से तीन गुना इज़ाफ़ा हुआ है, वहीं, दूरसंचार से जुड़ी सेवाओं के दामों में 92%-98% तक की गिरावट आई है.
रिलायंस जियो के आने के बाद से देश में डाटा की खपत 9.8 जीबी/महीने पहुंच दुनिया में सबसे ज़्यादा हो गई है. इस आंकड़े को उपयोगिता से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है, इसका कारण है, जहां अमरीका दुनिया का सबसे अमीर देश है और भारत 107वें स्थान पर आता है, अमरीका में प्रति व्यक्ति आय में 19वें स्थान पर है और भारत 157वें, अमरीका की 66 युनिवर्सिटी दुनिया की टॉप 200 में आती हैं और भारत की केवल एक. लेकिन, भारत में डाटा का दाम विश्व में सबसे कम है और अमरीका इस सूचि में 182वें स्थान पर आता है.
प्रति जीबी डाटा के दाम औसतन भारत में 0.26 डॉलर है, ब्रिटेन में 6.66 डॉलर ,अमरीका में 2.37 डॉलर, दक्षिण कोरिया में 15.12 डॉलर, और विश्व में 8.53 डॉलर की औसत है. इसलिये, सीओएआई द्वारा यह कहना कि, ट्राई द्वारा 5जी स्पेक्ट्रम के लिये तय 492 करोड़/एमएचजी का दाम, अमरीका और दक्षिण कोरिया से तक़रीबन 30-40% महंगा है, सही नहीं है. सरकारी पैसे पर व्यापार कर सस्ती सेवाएँ देना सही रवैया नहीं है.
इस समय की मांग है कि, संसाधनों का सही आकलन और मूल्यांकन हो, और सब्सिडी और मुफ़्तख़ोरी ख़त्म कर सभी भागीदारों के लिये एक जैसा माहौल बनाया जाये। आम नागरिक के लिये दूरसंचार पर होने वाला खर्च घरेलू बजट का 5% तक होना चाहिये.
अभी तक भारतीयों को इस 5% बजट पर 98% छूट मिलती रही है वहीं, बाक़ी का 95% बजट पिछले बीस सालो में क़रीब 200% तक बढ़ गया है. भारती एयरटेल ने कहा है कि, 130 रुपये पर खड़े एआरपीयू को धीरे धीरे 300 रुपये तक ले जाने की ज़रूरत है. मौजूदा कॉल और डाटा दरों में चार गुना इज़ाफ़े से भी उपभोक्ताओं पर ख़ास असर नहीं पड़ेगा. लेकिन इसके कारण,
- दूरसंचार कंपनियों की कमाई बढ़ेगी और यह कंपनियाँ बिना सरकारी खर्च के नई तकनीक पर निवेश कर सकेंगी.
- इस वजह से सरकारी कमाई में भी इज़ाफ़ा होगा जो देश के आर्थिक विकास में मददगार होगा.
- डाटा की उपयोगिता बढ़ेगी क्योंकि उपभोक्ता इसके इस्तेमाल में सावधानी बरतेंगे.
(लेखक एम आर पटनायक, सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक, बीएसएनएल, विशाखापत्तनम. विचार व्यक्तिगत हैं)