नई दिल्ली : लुटियंस में ऐसी चर्चा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद के विशेष सत्र के दौरान महिला आरक्षण विधेयक लाएंगे. तेलंगाना विधान परिषद सदस्य और मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी के. कविता ने इस कानून को औपचारिक रूप देने के लिए समर्थन के लिए सभी 47 राजनीतिक दलों के अध्यक्षों को पत्र लिखा है. इस विधेयक में 15 वर्षों के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की परिकल्पना की गई है. हालाँकि, यह विधेयक कोई नया प्रयास नहीं है और यहाँ तक इसकी यात्रा एक तरह से आज़ादी से पहले ही शुरू हो गई थी.
महिला आरक्षण विधेयक का वर्तमान विचार 1993 में एक संवैधानिक संशोधन से उत्पन्न हुआ, जिसमें कहा गया था कि ग्राम पंचायत में ग्राम परिषद नेता (सरपंच) का एक-तिहाई यादृच्छिक पद महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए. यह विधेयक इस प्रावधान को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं तक विस्तारित करने की दीर्घकालिक योजना बन गया. हालाँकि, हालिया संदर्भ में, यह विधेयक तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार ने 12 सितंबर 1996 को लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के प्रस्ताव वाल विधेयक लोकसभा में पेश किया था.
इस आरक्षण के मानदंड यह थे कि यह चक्रीय आधार पर होगा, और सीटें इस तरह से आरक्षित की जाएंगी कि हर तीन लगातार आम चुनावों के लिए एक सीट केवल एक बार आरक्षित होगी. वाजपेयी सरकार ने इस विधेयक को लोकसभा में पेश किया लेकिन कोई असर नहीं हुआ. बाद में, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-1 सरकार ने विधेयक को राज्यसभा में पेश किया, जहां कुछ क्षेत्रीय दलों के विरोध और कांग्रेस, भाजपा और वामपंथी दलों के सामूहिक समर्थन के बीच 9 मार्च 2010 को इसे एक के मुकाबले 186 वोटों के साथ पारित कर दिया गया. लेकिन चूंकि इसे निचले सदन में लंबित छोड़ दिया गया था, इसलिए यह 15वीं लोकसभा के विघटन के साथ समाप्त हो गया.
राजद और समाजवादी पार्टी इस समय महिला आरक्षण बिल के मुखर विरोधी थे. उन्होंने महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत कोटा के भीतर पिछड़े समूहों के लिए अतिरिक्त 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग की. जद (यू) के शरद यादव ने कहा था कि इस विधेयक से सिर्फ "पर कटी महिलाओं" को फायदा होगा जो "हमारी (ग्रामीण) महिलाओं" का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकतीं.
इस विधेयक का विरोध करने वालों ने इसे महिलाओं के प्रति अधिमान्य व्यवहार माना. हालांकि, एलजेपी के चिराग पासवान और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक अपनी रैलियों और भाषणों में इस बिल को पारित कराने पर जोर देते रहे हैं. फिलहाल स्थिति यह है कि बिल अभी भी लोकसभा में लंबित है. यह तभी कानून बनेगा जब सत्तारूढ़ सरकार न केवल शब्दों से बल्कि कार्रवाई से इसका समर्थन करेगी- इसका कारण लोकसभा में उसकी ताकत है. भाजपा के पास बहुमत होने के कारण सरकार इस विधेयक को कानून बनाने में उत्प्रेरक बन सकती है.