हैदराबाद: अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हो चुका है और देश के राष्ट्रपति समेत तमाम नेता या तो देश छोड़ चुके हैं या फिर छिपते फिर रहे हैं. लेकिन एक शख्स है जो तालिबान को अब भी ललकार रहा है. इस शख्स का नाम है अमरुल्ला सालेह. इस शख्स की पहचान अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के करीबी, अफगानिस्तान के जाने-माने नेता और मिलिट्री कमांडर अहमद शाह मसूद के सहायक के रूप में है.
अमरुल्ला सालेह एक बार फिर सुर्खियों में हैं. दरअसल सालेह ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर तालिबान के कब्जे के बावजूद खुद को तालिबान का कार्यकारी राष्ट्रपति घोषित कर दिया. साल 2001 में भी उस वक्त भी तालिबान के खिलाफ मोर्चा खोला था जब अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा था. उस वक्त हमलावर पत्रकार बनकर इंटरव्यू के बहाने आए और कमांडर मसूद को बम से उड़ा दिया. मसूद के पेंटागन (अमेरिकी रक्षा विभाग) और सीआईए (अमेरिकी सुक्षा एजेंसी) के साथ बहुत अच्छे संबंध थे. मसूद की मौत के बाद सालेह को सीआईए द्वारा प्रशिक्षण, खुफिया जानकारी जुटाने के लिए मदद दी गई. सालेह ने तजाकिस्तान में अपना अड्डा बनाया, जहां से वो तालिबान के खिलाफ अपने अभियान की योजना तैयार करता रहा, जब तक कि अमेरिका सेना अफगानिस्तान नहीं पहुंच गई.
मसूद एक ताजिक था, अफगानिस्तान की प्रमुख जातीय समूहों में से एक और उत्तरी काबुल की पंजशीर घाटी उसका गढ़ था. यह एक जिला था जिसे बाद में हामिद करजई शासन के दौरान अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से एक के रूप में घोषित किया गया था. ये इलाका कमांडर मसूद और उसके समर्थक, अनुयायियों के नेतृत्व में सभी तालिबान विरोधी कार्यकर्ताओं के लिए एक बड़ा केंद्र था.
कमांडर मसूद का बेटा अहमद मसूद भी तालिबान के विरोध में खड़ा हुआ और उसने पिता से विरासत में मिले गोला बारूद, अपने सभी हथियारबंद लड़ाके, संसाधन और समर्थन सालेह को दे दिया. ताकि तालिबान से अपने पिता की हत्या का बदला ले सके.
मसूद ने पंजशीर घाटी की जो कल्पना की थी वो उसके बेटे के नेतृ्त्व में बिल्कुल अलग थी. कभी ये घाटी तालिबान से मुक्त थी लेकिन अब यहां भी तालिबान समर्थक हैं. कमांडर खुसरानी जैसे कुछ ताजिक भी हैं, जिन्होंने सालेह को तालिबान के समर्थन में उसी पंजशीर घाटी से चुनौती दी है, जहां कभी तालिबान कदम भी नहीं रख सकता था.
सालेह इस इलाके में अमेरिका के लिए सबसे बड़ी ताकत था और उससे बहुत उम्मीद थी. उसके जासूसी कौशल को देखते हुए अमेरिका का उसपर बहुत अधिक भरोसा था, खुफिया जानकारी जुटाने के लिए उसे सीआईए ने ही ट्रेनिंग दी थी. कुल मिलाकर अफगानिस्तान में वो अमेरिका की बड़ी ताकत था.
अमेरिका ने तालिबान के खिलाफ बेहतर चुनौती की उम्मीद थी क्योंकि उन्होंने तालिबान के खिलाफ लड़ने के लिए हथियार और गोला-बारूद की आपूर्ति तक जमीन तैयार की थी, जिसे उन्होंने सालेह के माध्यम से तालिबान के खिलाफ लड़ने के लिए और बातचीत के दौरान बेहतर सौदेबाजी की शक्ति के लिए उन्हें सौंप दिया था. अमेरिका जानता था कि अफगानिस्तान तालिबान के हाथों में जाएगा, लेकिन उन्होंने यह कल्पना नहीं की थी कि ये सब इतनी तेजी से बिना किसी विरोध के हो जाएगा दरअसल अमेरिका को उम्मीद थी कि सरकार में कम से कम करीब आधी हिस्सेदारी सालेह के नेतृत्व वाले उत्तरी गठबंधन को मिलेगी.