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मतदान के बीच बड़ा सवाल ये कि क्या पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में स्थिरता आएगी?

उत्तराखंड में मतदान के बीच जनता में केवल एक ही सवाल है कि क्या राज्य को स्थिर सरकार मिलेगी. बारी-बारी से कांग्रेस और भाजपा के हाथ में यहां की सत्ता रही है. पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार रतन मणि लाल का विश्लेषण.

Will there be stability in the hill state
उत्तराखंड में मतदान

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Published : Feb 14, 2022, 4:35 PM IST

Updated : Feb 14, 2022, 5:27 PM IST

हैदराबाद : पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में एक चरण में आज (14 फरवरी) को मतदान हो रहा है. इस बार भी हर कोई यह सवाल कर रहा है कि क्या राज्य को स्थिर सरकार मिलेगी, जो अपना कार्यकाल पूरा करेगी? नवंबर 2000 में उत्तराखंड बनने के बाद से राज्य ने दस मुख्यमंत्रियों को देखा है, और उनमें से केवल दो - कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी (2 मार्च, 2002 से 7 मार्च, 2007 तक) और भारतीय जनता पार्टी के त्रिवेंद्र सिंह रावत (18 मार्च, 2017 से 9 मार्च, 2021 तक) हैं जिनको तीन साल से अधिक समय पूरा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. वास्तव में, नारायण दत्त तिवारी एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री थे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया था.

देखा जाए तो केवल कांग्रेस और भाजपा की बारी-बारी से सत्ता रही है. दिलचस्प बात यह है कि दोनों पार्टियों के मामले में 70 सदस्यीय इस विधानसभा के विधायकों ने ऐसी बेचैनी दिखाई है, जिससे मुख्यमंत्री के लिए स्थिरता पाना मुश्किल रहा. हर मतदाता के मन में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इस बार का फैसला निर्णायक होगा, या पहले की तरह खंडित होगा, जिससे अस्थिर सरकारें बनेंगी.

2017 के चुनाव में भाजपा को 57 सीटें मिली थीं, जो एक निर्णायक जीत थी. मुख्यमंत्री के रूप में त्रिवेंद्र रावत के नामांकन का आम तौर पर स्वागत किया गया था. हालांकि, उन्होंने चार साल पूरे करने से पहले ही पद छोड़ दिया. कई मामलों को लेकर उनके खिलाफ विधायकों की नाराजगी बढ़ गई और भाजपा नेतृत्व को भी लगा कि उनके सीएम बने रहने से दलबदल हो सकता है और बहुमत का नुकसान हो सकता है.

उनके उत्तराधिकारी तीरथ सिंह रावत स्टॉपगैप व्यवस्था साबित (stopgap arrangement) हुए और उन्होंने चार महीने से भी कम समय में इस्तीफा दे दिया. वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने आश्चर्यजनक रूप से 4 जुलाई, 2021 को पदभार ग्रहण किया. ऐसे में कहा जा सकता है कि नेतृत्व में बार-बार और अनुचित परिवर्तन राज्य के राजनीतिक इतिहास में दुखती रग रहा है.

अलग पहचान
राज्य में गढ़वाल और कुमाऊं के दो मंडल हैं, और दोनों क्षेत्रों के निवासियों को अपनी विशिष्ट पहचान पर गर्व है. यहां तक ​​कि दोनों क्षेत्रों के निवासियों के बीच लगभग किसी भी बात पर असहमति आम है. इस तथ्य के बावजूद कि धार्मिक तीर्थयात्रा और पर्यटन राज्य की अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार हैं, राजनीतिक स्थिरता इन और क्षेत्रीय असमानता के अन्य मुद्दों से उपजी है.

दिसंबर में हरिद्वार में आयोजित एक 'धर्म संसद' में कथित रूप से कुछ भड़काऊ भाषण दिए गए. यह उम्मीद की जा रही थी कि इस चुनाव में ये प्रमुख मुद्दा बनेगा. कांग्रेस इसे भुनाएगी. दिलचस्प बात यह है कि चुनाव प्रचार में इस मुद्दे का जिक्र तक नहीं किया गया. कांग्रेस और राज्य की राजनीति में प्रवेश करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) दोनों ने धर्म संसद को बड़ा मुद्दा बनाने से परहेज किया है.

कांग्रेस और आप ने चुनाव प्रचार में भ्रष्टाचार, रोजगार सृजन, शिक्षा, स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा और प्रदूषण जैसे मुद्दे उठाए. पहाडिय़ों के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के पर्यटन और पर्यावरण संरक्षण से संबंधित कई परियोजनाओं में देरी और अनियमितताएं भी एक प्रमुख मुद्दा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य के दौरे के दौरान जनरल बिपिन रावत के पहाड़ी गौरव का आह्वान किया था. आप नेता अरविंद केजरीवाल ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि राज्य कांग्रेस और भाजपा दोनों की वजह से राज्य में अस्थिरता से तंग आ चुका है. उन्होंने कहा था कि आप महिलाओं को 1000 रुपये, सभी बेरोजगार युवाओं को 5000 रुपये के मासिक भत्ते जैसी रियायतों, 1 लाख नौकरियों का सृजन कर राज्य की दशा बदल सकती है.

उत्तराखंड यूपी के अलग होकर साल 2000 में अलग राज्य बना. इस पहाड़ी राज्य में सोशल इंजीनियरिंग एक प्रमुख राजनीतिक कवायद नहीं है. मुस्लिम आबादी कम है और कुछ जिलों तक ही सीमित है. 20 प्रतिशत से भी कम आबादी दलित है. राज्य पूरी दुनिया में हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थल है के लिए प्रसिद्ध है. इसलिए धार्मिक ध्रुवीकरण चुनाव में तर्कसंगत नहीं लगता है. पिछले चुनावों में जातिगत पहचान ने भी बहुत कम भूमिका निभाई. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने दलित आबादी के बीच समर्थन तलाशने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुई.

कांग्रेस और भाजपा दोनों एक ही रास्ते पर चल रहे हैं, एक ही रणनीति अपना रहे हैं और एक ही तरह की राजनीति कर रहे हैं. दोनों पार्टियां अंतर्कलह और विद्रोह से जूझ रही हैं, जिसको लेकर निर्णायक नेतृत्व की कमी देखी जा रही है.

जहां तक सीएम ​​धामी की बात है तो उनके युवा दृष्टिकोण और विधायकों के बीच असंतोष को संभालने की क्षमता का भाजपा में स्वागत किया गया है. उम्मीद है कि जीत की स्थिति में उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है. जबकि कांग्रेस के दिग्गज नेता हरीश रावत पार्टी के मुख्यमंत्री का चेहरा बनना चाहते थे, लेकिन ऐसा हो न सका. रावत ऐसे उम्मीदवार हैं जिनको गढ़वाल और कुमाऊ दोनों क्षेत्रों के नेताओं की सीएम पद के लिए स्वीकृति मानी जा रही है.

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Last Updated : Feb 14, 2022, 5:27 PM IST

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