भारत और पाकिस्तान के बीच नियंत्रण रेखा पर तनाव घटाने को लेकर फिर से सहमति बनी है. हुर्रियत और पाकिस्तान के बीच दूरी भी लगातार बढ़ती जा रही है. इन दोनों के क्या मायने हैं, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. खासकर 2003 में हुए भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम की पृष्ठभूमि में.
2014 में भाजपा की सरकार बनने के बाद से सीमा पर लगातार तनावपूर्ण स्थिति रही है. मोदी सरकार के तहत यह पहली बार है कि संघर्षविराम को लेकर दोनों देशों ने एकराय कायम की है. ऐसी स्थिति में एक वैसे देश के लिए सार्वजनिक तौर पर बयान देना बहुत कठिन होता है, जब उस बयान पर बहुत जल्द अप्रसन्नता जाहिर कर दी जाती है. जब से भारत की संसद ने जम्मू-कश्मीर का दो भागों में विभाजन किया और राज्य का विशेषाधिकार खत्म कर दिया, इसके बाद से सीमा पर रहने वाले लोग लगातार बंदूकों और मोर्टार के धमाके सुन रहे हैं.
सीजफायर लाइन को नियंत्रण रेखा भी कहा जाता है. यह जम्मू-कश्मीर को दो भागों में विभाजित करता है. एक भाग पर पाकिस्तान का नियंत्रण है. इसे पीओके कहते हैं. जब भी एक पक्ष को दूसरे पक्ष के प्रति असंतोष दिखाना होता है, तब नियंत्रण रेखा पर स्थिति अशांत हो जाती है. यह असहमति के प्रकटीकरण का एक तरीका बन गया है.
24 फरवरी को अचानक ही सीजफायर की घोषणा कर दी गई. तब से यहां पर गोलीबारी नहीं हो रही है. इससे पहले नियंत्रण रेखा पर जब भी स्थिति शांत हो जाती, तो चिंताएं और अधिक बढ़ जाती थीं. क्योंकि कब अचानक से गोलीबारी शुरू हो जाए, इसे लेकर कोई भी कुछ नहीं कह सकता था. सर्दी से पहले और उसके बाद आतंकियों के आने की फ्रीक्वेंसी बढ़ जाती है. यह एक खुला तथ्य है कि आतंकी तभी भारतीय सीमा में दाखिल होते हैं, जब उसे पाकिस्तान की ओर से कवर फायर मिलता है.
इससे इतर 24 फरवरी को जिस संघर्षविराम की घोषणा हुई, उससे बहुत उम्मीद जगी है. 25 फरवरी को भारतीय थल सेना प्रमुख नरवणे ने जो बयान जारी किया, उससे पता चलता है कि दोनों देशों ने बैक चैनल डिप्लोमेसी के जरिए उग्रवाद को खत्म या फिर उसे काफी कम करने पर सहमति बना ली है. सेना प्रमुख ने सीजफायर का स्वागत किया. हालांकि, उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि उग्रवाद के खिलाफ सेना की कार्रवाई जारी रहेगी. उनके लिए बचने का कोई रास्ता नहीं है. एलओसी को पार कर ही आतंकी भारत में दाखिल होते हैं. इसलिए इस पर एक बार सहमति बना ली जाए, तो आतंकियों के बचने का कोई उपाय नहीं बचता है.
पाकिस्तान के लिए यह नीतिगत बदलाव है. क्योंकि पाकिस्तान कश्मीर को कोर मुद्दा बताता रहा है. यूनाइटेड जिहाद काउंसल प्रमुख सैयद सलाउद्दीन (असली नाम - युसूफ शाह) जैसे आतंकियों के दिन अब लदने वाले हैं. दोनों देशों के बीच संघर्षविराम पर बनी सहमति के बाद हुर्रियत ने अप्रसन्नता जाहिर की थी. इसके बाद सलाउद्दीन का समर्थन करने वाले हुर्रियत प्रमुख सैयद अली शाह गिलानी को आगाह कर दिया गया है. गिलानी ने पाकिस्तान को खत लिखकर संघर्षविराम पर विरोध जताया था. कश्मीर पर बनी संसदीय समिति ने गिलानी के रूख और संकीर्ण सोच की घोर निंदा की है.
पाकिस्तान के लिए एफएटीएफ की ग्रे सूची से बाहर निकलना प्राथमिकता है. जाहिर है, उसे इस संस्था द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरा करना होगा. सीमा पर जारी हिंसा और आतंकियों का समर्थन करना, एफएटीएफ के फ्रेमवर्क में सही नहीं बैठता है. ग्रे सूची में बने रहने की मुख्य वजह पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में हिंसा को बढ़ावा देना रहा है. ऐसे में इस सीजफायर से पाकिस्तान को काफी फायदे होने की उम्मीद है.
नियंत्रण रेखा पर शांति बनी रहेगी, तो चीन के प्रमुख प्रोजेक्ट (सीपीईसी) का काम भी शांति से होता रहेगा. गिलगिट बाल्टिस्तान को लेकर भारत बहुत अधिक शोर नहीं मचा सकता है. पाकिस्तान ने संविधान में संशोधन को लेकर इसे पांचवां राज्य घोषित कर दिया है. चीन के बीआरआई प्रोजेक्ट का काम भी बिना किसी गतिरोध के जारी रह सकता है.
भारत जम्मू-कश्मीर में शांति की वजह से विकास के कार्यों को बेहतर ढंग से अंजाम दे सकता है. अगर सीजफायद बना रहता है, तो प्रोजेक्ट को नई गति मिलेगी. भारत के लिए अब मुख्यधारा के राजनीतिक नेतृत्व को प्रबंधित करना सबसे बड़ी चुनौती होगी, वहीं पाकिस्तान के लिए अलगावादियों को मैनेज करना प्रमुख काम है. स्थानीय लोगों का उग्रवाद की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाना भारत और पाक दोनों ही सरकारों की चुनौती है. यह देखना बाकी है कि मोदी अब भी अलगवावादियों के प्रति कड़े कदम जारी रखेंगे और पाकिस्तान उनके प्रति सुषुप्त रवैया अपनाता रहेगा.