हैदराबाद : 15 अगस्त 2021 को अफगानिस्तान में तालिबान 2.0 की शुरुआत हो गई. काबुल में बिना खून-खराबे के तालिबान अफगानिस्तान की गद्दी तक पहुंच गया. इस बदले हालात में सबसे अधिक चुनौती भारत के सामने खड़ी है. अफगानिस्तान के साथ उत्तर पश्चिमी कश्मीर में भारत 106 किलोमीटर की सीमा साझा करता है. दिल्ली से काबुल की दूरी करीब 1005 किलोमीटर है, यानी मुंबई के मुकाबले काबुल दिल्ली के नजदीक है. अगर काबुल के साथ तालमेल नहीं हुआ तो गंगा-यमुना की तलहटी में भी शांति की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
कतर में अफगानिस्तान में काबिज होने वाली सरकार की रूपरेखा तय हो रही है चीन, रूस और पाकिस्तान तालिबानी सरकार के समर्थन में
काबुल पर तालिबान के नियंत्रण के बाद चीन अपना इरादा साफ कर चुका है. चीन ने तालिबान के साथ 'दोस्ताना रिश्ते' बनाने की इच्छा जताई है. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान भी तालिबान को बधाई दे चुके हैं. रूस ने भी तालिबान शासन को गनी की सरकार से बेहतर होने की उम्मीद जताई है. इसके अलावा ईरान, सऊदी अरब, कतर, तुर्की, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान भी तालिबान 2.0 को समर्थन दे सकते हैं. यूरोपीय देशों ने इस मसले पर अपने पत्ते नहीं खोले हैं. अभी अफगानिस्तान में नई सरकार सत्ता नहीं संभाली है, मगर ये सारे संदेश यह इशारा कर रहे हैं कि तालिबान 2.0 शासन को वैश्विक मान्यता मिल सकती है. तालिबान 1.0 को पाकिस्तान और सऊदी अरब को छोड़कर किसी देश ने मान्यता नहीं दी थी.
अफगानिस्तान में तालिबान मुद्दे पर जानें एक्सपर्ट की राय भारत को तेज करने होंगे कूटनीति प्रयास
एक्सपर्ट मानते हैं कि भारत को भी तालिबान से बातचीत के लिए खुले तौर पर कूटनीतिक प्रयास तेज करने चाहिए. अब ऐसे हालात में बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत तालिबानी सरकार को मान्यता देगा. बता दें कि भारत पिछले 20 साल के दौरान अफगानिस्तान में 3 बिलियन डॉलर का निवेश कर चुका है. अगर भारत जल्द रणनीति नहीं बनाता है तो उसका निवेश भी डूब जाएगा.
मध्य एशिया तक पहुंचने के लिए जरूरी है अफगानिस्तान
डिफेंस एक्सपर्ट रंजीत कुमार का कहना है कि मध्य एशिया के देशों तक पहुंचने के लिए अफगानिस्तान से तालमेल जरूरी है. सामरिक तौर पर अगर भारत तालिबान की सरकार की अनदेखी करता है तो वह मध्य एशिया से कट जाएगा. साथ ही ईरान में चल रहे चाबहार प्रोजेक्ट पर भी बुरा असर पड़ेगा, जो भारत के हित में नहीं है. आने वाले समय में उसे तालिबान को मान्यता देनी ही होगी. इसके अलावा कोई दूसरा ऑप्शन नहीं है. अभी भारत को अपनी राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर फैसला लेना होगा.
अफगानिस्तान में तालिबान मुद्दे पर जानें एक्सपर्ट की राय भारत को कूटनीति के आधार पर लेना होना फैसला
कैरियर डिप्लोमेट और पूर्व राजदूत जितेंद्र त्रिपाठी भी अफगानिस्तान में बनने वाली नई सरकार को मान्यता देने के पक्ष में हैं. जितेंद्र त्रिपाठी के अनुसार, अफगानिस्तान में सरकार बनाने के लिए दोहा में वार्ता चल रही है. इस वार्ता में पूर्व अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई और मुल्ला बरादर भी शामिल हैं. काबुल पर कब्जा करने के बाद भी इस बार तालिबान ने 1991 की तरह सरकार बनाने की कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई है. इसलिए अब अफगानिस्तान में कोई सरकार बनती है, तो भारत को मान्यता देनी चाहिए. यह कहना आसान है कि तालिबान की जड़ में हिंसा है, इसलिए उसका समर्थन नहीं किया जा सकता है. यह सेंटिमेंटल स्टेटमेंट है, कूटनीतिक नहीं. कूटनीति वास्तविक दुनिया में काम करती है. अफगानिस्तान में तालिबान आज का सच है और भारत को अब तालिबान 2.0 के साथ काम करना होगा.
फिलहाल तालिबान के बदले हैं तेवर
पूर्व राजदूत जितेंद्र बताते हैं कि दुनिया को दिखाने के लिए ही सही, तालिबान लगातार विश्व समुदाय को सहयोग करने और धैर्य रखने का मैसेज दे रहा है. पिछली बार की तरह काबुल में हिंसा नहीं हुई है. अफगानिस्तान में औरतों, बच्चों और एजुकेशन पर फतवे किसी तालिबानी लीडर ने नहीं, बल्कि लड़ाकों ने किए हैं. तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से बात करने के लिए अपना चेहरा भी बदला है. उसके प्रवक्ता सुहैल शाहीन काबुल टाइम्स के एडिटर रहे हैं तो मोहम्मद नदीम वारडक ने पीएचडी की डिग्री ले रखी है. यह दुनिया को पढ़े-लिखे तालिबान की झलक देने की कोशिश है.
अफगानिस्तान में हुकूमत चलाने वाले तालिबानी नेता भविष्य में पता चलेगा तालिबान का असली रुख
हालांकि, डिफेंस एक्सपर्ट रंजीत कुमार का कहना है कि तालिबान प्रवक्ता शरीयत के हिसाब से शासन चलाने की बात कह चुके हैं. देश का नाम भी बदलकर इस्लामी अमीरात ऑफ अफगानिस्तान कर दिया गया है. भविष्य में यह देखना होगा कि तालिबान आज के दौर में किए गए वादों पर कितना खरा उतरता है. अगर भारत ने तालिबान को मान्यता देने में देरी की तो क्या होगा ? अफगानिस्तान की नई सरकार को मान्यता देने के मसले पर भारत को त्वरित निर्णय लेना होगा. ना-नुकुर के बाद देरी से कदम उठाने से भारत को कई मोर्चों पर नुकसान हो सकता है. चीन और पाकिस्तान ने तालिबान से सहयोग करने की बात कही है. रूस ने भी तालिबान की तारीफ की है.
नहीं चेते तो एंटी मुस्लिम की छवि गढ़ देंगे चीन-पाकिस्तान
अगर भारत ने बदले हुए नए अफगानिस्तानी नेतृत्व की अनदेखी की तो पाकिस्तान और चीन तालिबान को एंटी मुस्लिम होने का भरोसा दिला सकते हैं. तालिबानी प्रवक्ता सुहैल शाहीन अपने इंटरव्यू में भारत से अफगानिस्तान में पेंडिग प्रोजेक्ट को पूरा करने की अपील कर चुके हैं. भारत को अभी अफगानिस्तान की भलाई के सूत्र के साथ तालिबान से वार्ता करनी होगी. जितेंद्र त्रिपाठी बताते हैं कि अभी तक भारत पर्दे के पीछे तालिबान से बात करता रहा है. जब दुनिया के अन्य देश उससे वार्ता कर रहे हैं, तो भारत को भी आगे आना चाहिए. भारत सरकार भले ही अफगानिस्तान के नए नेतृत्व को तुरंत मान्यता न दे मगर तालिबान को भरोसा देना होगा कि वह दुश्मन नहीं है.
एक्सपर्ट के अनुसार, भारत को अब नए तालिबानी शासन को गंभीरता से लेना होगा पाकिस्तान को खुश होने का मौका न दे भारत
रक्षा और विदेश मामलों के विशेषज्ञ मानते हैं कि अभी तालिबान से संवाद करना जरूरी है. अगर समय रहते भारत अफगानिस्तान की नई सरकार का विश्वास जीत लेता है तो पाकिस्तान और चीन की खुशी भी कम हो जाएगी. फिलहाल पाकिस्तान भारतीय निवेश के डूबने से खुश है. पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच डूरंड लाइन को लेकर पुराना विवाद है. तालिबान 1.0 ने भी डूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा मानने से इनकार कर दिया था. इमरान खान अभी खुशफहमी में है. देर-सवेर यह मुद्दा दोबारा उठेगा.