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एग्जिट पोल : यूपी में क्यों नहीं बही 'बदलाव की बयार'

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम 10 मार्च को आएंगे. लेकिन एग्जिट पोल ने विपक्षी पार्टियों की नींदें उड़ा दी हैं. और यकीन मानिए, अगर ये परिणाम सच साबित हो गए, तो इसमें कोई दो राय नहीं कि पीएम मोदी की निर्णायक भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है. खासकर अंतिम के दो चरणों में, उन्होंने जिस तरीके से प्रचार की जिम्मेदारी खुद उठा ली थी, वह सचमुच तारीफ योग्य है. दूसरी ओर आपको ये भी मानना पड़ेगा कि अनेकों मुद्दों के रहते हुए भी विपक्षी पार्टियां अपना नैरेटिव सेट नहीं कर सकीं. पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार श्रीनंद झा की एक विश्लेषण.

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डिजाइन फोटो माया अखिलेश योगी

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Published : Mar 8, 2022, 9:13 PM IST

नई दिल्ली : एग्जिट पोल मुख्य रूप से तीन बिंदुओं की ओर इशारा कर रहा है. पहला- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने अंतिम दो चरणों के चुनावों की जिम्मेदारी खुद उठा ली थी, खासकर पूर्वांचल में. इसने मतदाताओं का मूड भाजपा के पक्ष में कर दिया. दूसरा- समाजवादी पार्टी ने अति आत्मविश्वास में योगी सरकार के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी फैक्टर पर अत्यधिक भरोसा कर लिया. उन्होंने विश्वसनीय काउंटर नैरेटिव स्थापित नहीं किया. और तीसरा है- भाजपा का हिंदुत्व फैक्टर. यह यूपी में आज भी मजबूत दिखता है.

अधिकांश एग्जिट पोल भाजपा को बहुमत मिलते हुए दिखा रहे हैं. इंडिया टुडे - माय एक्सेस ने तो भाजपा को पिछली बार (2017) के मुकाबले अधिक सीटें दी हैं. एग्जिट पोल - वैसे विगत में कई बार एग्जिट पोल के नतीजे भी सही नहीं आए हैं. वे बुरी तरह फेल हुए हैं. पिछली बार प.बंगाल चुनाव के दौरान भी ऐसा ही देखने को मिला था. कई एग्जिट पोल ने तब बंगाल में भाजपा को बहुमत मिलते हुए दिखा दिया था. 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के एग्जिट पोल भी सच नहीं साबित हुए. यहां तक कि 2017 के यूपी के एग्जिट पोल में भाजपा के क्लीन स्विप की भविष्यवाणी किसी ने नहीं की थी. इस बार एग्जिट पोल किस हद तक सही साबित होगा, यह तो 10 मार्च को ही पता चल पाएगा, जब नतीजे सामने आएंगे.

इस बार एग्जिट पोल ने पता नहीं अंतिम चरण के चुनावों को ठीक से फैक्टर किया है या नहीं, इसके बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है. अंतिम चरण में पूर्वांचल की 54 सीटों पर मतदान हुए थे. जहां पर चुनाव हुए, उनमें वाराणसी, मिर्जापुर, आजमगढ़, भदोही, जौनपुर और सोनभद्र जैसे इलाके शामिल थे. और ये इलाके 2014 तक सपा और बसपा के मजबूत गढ़ माने जाते थे. 2014 में भाजपा ने इन इलाकों में जबरदस्त सफलता प्राप्त की थी. 2017 और 2019 के चुनावों में भाजपा ने यहां पर अपनी स्थिति को और अधिक मजबूत कर ली. लेकिन पूर्वी यूपी को समझना इतना आसान नहीं है. क्योंकि 2017 में जब भाजपा ने यूपी में क्लिन स्विप कर लिया था, तब पूर्वी उत्तर प्रदेश के परिणाम यूपी के बाकी हिस्सों की तरह नहीं थे. तब भाजपा को 54 में से मात्र 29 सीटें ही मिलीं थीं. उनकी सहयोगी को चार सीटें मिलीं थीं. एटा, इटावा और मैनपुरी जैसे यादव बहुल इलाकों में मिली हार के बावजूद सपा को पूर्वी यूपी की 54 में से 11 सीटें मिलीं थीं. मायावती की पार्टी बसपा को पांच सीटें मिलीं थीं. लब्बो लुआब ये है कि मंडल राजनीति के पुनरुद्धार के परिदृश्य में सपा की उम्मीदें बढ़ गईं थीं, लेकिन अगर एग्जिट पोल सही साबित हुए, तो जाहिर है उनकी उम्मीदों पूरी नहीं हुईं.

महिला मतदाता

अंतिम के तीन चरणों में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं ने अधिक बढ़-चढ़कर मतदान किए. चुनाव आयोग के आंकड़े ऐसे ही दिखाते हैं. उदाहरण के तौर पर पांचवें चरण के चुनाव में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं ने 11 फीसदी अधिक मतदान किया. इसी तरह से छठे चरण में तीन फीसदी अधिक महिलाओं ने वोट किया. इन आंकड़ों से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि महिला मतदाताओं ने भाजपा का समर्थन किया, वह भी कानून और व्यवस्था में सुधार के नाम पर. राज्य और केंद्र सरकार की कई योजनाओं से महिलाएं सीधे ही लाभान्वित हुईं. इसमें सीधे नकदी ट्रांसफर से लेकर उज्जवला योजना के तहत मिलने वाले सिलेंडर भी शामिल हैं. फ्री राशन स्कीम भी है. भाजपा ने बार-बार गुंडा राज के लौटने का नैरेटिव सेट किया. ऐसा लगता है कि महिला मतदाताओं को इन मुद्दों से कहीं अधिक प्रभावित किया.

देखिए, कोई भी सरकार हो, उसे एंटी इंकंबेंसी फैक्टर का सामना करना ही पड़ता है. यह योगी आदित्यनाथ सरकार के लिए भी एक फैक्टर है. बेरोजगारी और महंगाई बड़े मुद्दे थे. इसी तरह से आवारा पशु और खेती की बढ़ती लागत से छोटे किसानों की परेशानी भी मुद्दा था. हालांकि, एग्जिट पोल दिखाते हैं कि विपक्षी पार्टियां इन मुद्दों को एक सिरे में नहीं पिरो पाई. इसका राजनीतिक इस्तेमाल किस तरह से होना चाहिए, उसका लाभ उठाने में विपक्षी पार्टीयां नाकामयाब रहीं. सपा, बसपा और कांग्रेस, तीनों ही पार्टियों ने काफी देरी से चुनाव तैयारियों की शुरुआत की. ये सभी नेता उस वक्त नदारद थे, जब कोविड की दूसरी लहर की वजह से स्वास्थ्य आपातकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी. ये सभी पार्टियां आक्रामक हिंदुत्व को सीधे चुनौती देने से बचती रहीं. और हाल ये हो गया कि ये भी सॉफ्ट हिंदुत्व की राह चलने लगे. चुनौती न होने की स्थिति में होने से, भाजपा को चुनाव अभियान के अंत की ओर नई वास्तविकताओं और नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. लेकिन, विपक्षी नेताओं के लिए, यह स्पष्ट रूप से उनके प्रयासों में कमी और बहुत देर से शुरुआत होने का मामला लग रहा है.

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(डिस्क्लेमर: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं. यहां व्यक्त किए गए तथ्य और राय ईटीवी भारत के विचारों को नहीं दर्शाते हैं)

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