हैदराबाद: अगले साल की शुरुआत में देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं. बीजेपी फिर से सत्ता पर काबिज होने का दावा कर रही है तो कांग्रेस का अपना वादा है. कुल मिलाकर हर कोई अपनी-अपनी ढफली पर अपना-अपना राग गा रहा है. लेकिन जानकार मानते हैं कि नतीजा भले भविष्य में छिपा हो लेकिन मौजूदा वक्त में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव का ग्राफ बढ़ रहा है. बीते दिनों सूबे में घटा सियासी घटनाक्रम तो इसी ओर इशारा करता है.
बीते दिनों ऐसा क्या हुआ है ?
1) बसपा और बीजेपी विधायक सपा में शामिल- बीते 30 अक्टूबर को बसपा के 6 और बीजेपी के एक मौजूदा विधायक अपनी पार्टी छोड़कर अखिलेश की साइकिल पर सवार हो गए. इन बसपा विधायकों को बीते साल राज्यसभा चुनाव में पार्टी व्हिप के खिलाफ जाने के आरोप में निलंबित किया गया था. वहीं सीतापुर से बीजेपी के बागी विधायक राकेश राठौर भी सपा के साथ आ गए.
बागी विधायक हुए सपा की साइकिल पर सवार 2) राजभर-अखिलेश का गठबंधन- बीते दिनों सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन का ऐलान हुआ. एक अनुमान के मुताबिक यूपी में राजभर समुदाय की आबादी 3 फीसदी के करीब है. जो यूपी के नजरिये से पहली नजर में भले कम लगे लेकिन सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश के नजरिये से ये अच्छा खासा आंकड़ा है.
3) रालोद से गठबंधन की तैयारी- अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी के बीच भी सियासी रिश्तेदारी को लेकर बातचीत चल रही है. कहा जा रहा है कि इन दिनों सीटों के बंटवारे को लेकर बातचीत आखिरी दौर में है और जल्द ही दोनों के बीच गठबंधन का खाका सार्वजनिक हो सकता है.
राजभर का साथ दिलाएगा पूर्वांचल का वोट ? अखिलेश क्यों बन रहे हैं 'दूसरी' पसंद ?
'दूसरी' पसंद इसलिये क्योंकि बीते लोकसभा और विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए तमाम सियासी जानकार बीजेपी को सत्ता की चाबी फिर से सौंप रहे हैं लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि ये लोकतंत्र है जहां जनता ही सबकुछ है और ये पब्लिक है जो सब जानती है. इसे ऐसे समझिये की सत्ता पर बीजेपी काबिज है, ऐसे में वो कौन सी पार्टी है जो यूपी के सियासी दंगल में बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित कर रही है. इस लिहाज से समाजवादी पार्टी का नाम आगे आ रहा है.
बसपा या बीजेपी छोड़ सपा का दामन थामने वाले विधायकों के संदर्भ में सवाल उठता है कि समाजवादी पार्टी ही क्यों ? इन विधायकों ने अन्य दलों का रुख क्यों नहीं किया. सियासी जानकार मानते हैं कि कांग्रेस भले इन दिनों यूपी में खूब हाथ पांव मार रही हो लेकिन उसके पास ना कैडर है और ना ही नेता ऐसे में नेता कांग्रेस की नाव पर सवार होने का जोखिम नहीं उठाना चाहते.
इसी तरह मायावती की बहुजन समाज पार्टी को भी लोग पहले की तरह मजबूत नहीं समझ रहे हैं. जानकार मानती है कि मायावती के कैडर या वोटबैंक में बीते 2 लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव में बहुत सेंधमारी हुई है. कांग्रेस की इसमें सेंधमारी की कोशिश जारी है और बीजेपी लगा चुकी है. इसलिये बीजेपी के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने के मोर्चे पर ज्यादातर नेता अखिलेश यादव के साथ आ रहे हैं.
बीजेपी के नक्शे कदम पर क्यों चल रहे हैं अखिलेश यादव ? बीजेपी के फॉर्मूले पर चल रही है अखिलेश की 'साइकिल'
बीते दिनों की अखिलेश यादव की पूरी कवायद बीजेपी के उसी फॉर्मूले के तहत बुनी जा रही है. जिसमें बागियों और छोटे दलों को अपने साथ लाना है. बीजेपी की जीत में इस फॉर्मूले का भी बड़ा हाथ रहा है. अखिलेश यादव दूसरे दलों के बागियों को साथ लाकर और छोटे दलों को साधकर अपनी जीत का रोडमैप तैयार कर रही है.
बसपा और बीजेपी के बागियों को पार्टी ज्वाइन करवा के अखिलेश ने ये मैसेज दिया है कि उनके दरवाजे सबके लिए खुले हैं. खासकर जो बीजेपी के खिलाफ हों. अखिलेश यादव दावा करते रहे हैं कि चुनाव से पहले दूसरे दलों के कुछ और विधायक भी उनके खेमे में आएंगे.
उधर पूर्वांचल को साधने के लिए अखिलेश ने राजभर से रिश्ता जोड़ लिया है. पूर्वांचल की करीब 100 सीटों पर इस बिरादरी के 20 फीसदी वोट हैं. जबकि पूर्वांचल की देवरिया, जौनपुर, मऊ, गाजीपुर, बलिया, वाराणसी, चंदौली, महाराजगंज, श्रावस्ती, बहराइच, अंबेडकर नगर जैसी सीटों पर इस वोट बैंक का असर 30 से 35 फीसदी तक पहुंचता है.
गठबंधन से मिलेगी अखिलेश यादव को जीत ? इसी तरह आरएलडी की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छी पकड़ है. भले मौजूदा विधानसभा में पार्टी का एक भी विधायक ना हो लेकिन किसान आंदोलन राष्ट्रीय लोक दल के लिए संजीवनी साबित हो सकती है. पश्चिमी यूपी के 13 से 15 जिलों की जाट बहुल सीटों को साधने के लिए अखिलेश और जयंत की जोड़ी कारगर साबित हो सकती है. साथ ही इस गठबंधन के जरिये पश्चिमी यूपी का मुस्लिम वोट बैंक भी साधा जा सकता है.
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क्या अखिलेश बनेंगे बीजेपी का विकल्प ?
उत्तर प्रदेश में बीते विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को भले महज 47 सीटें जीत पाई हो लेकिन मौजूदा दौर में अखिलेश यादव जिस तरह से सियासी बिसात पर मोहरे बिछा रहे हैं, सियासी जानकार मानते हैं कि वो सूबे में बीजेपी का सबसे बड़ा विकल्प बनकर उभर सकते हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, मौजूदा यूपी चुनाव में अखिलेश यादव भी इस बात को समझते हैं और इसीलिये छोटे-छोटे दलों और बागियों को अपने साथ लेकर चल रहे हैं. 2012 में जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने थे, तो सपा को 224 सीटें दिलाकर सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में लगभग हर जाति के वोटबैंक का हाथ था.
अखिलेश यादव ने की मिशन 2022 की तैयारी जानकारों के मुताबिक यूपी की 120 से 130 सीटों पर समाजवादी पार्टी की अच्छी पकड़ है और इनमें से ज्यादातर पर जीत हासिल कर सकती है. लेकिन उसके लिए चुनौती है 202 का वो जादुई आंकड़ा, जिस तक पहुंचने के लिए उसे 80 से 90 सीटें जीतनी होंगी. इसलिये पश्चिम से लेकर पूर्व तक सियासी रिश्तेदारी की जा रही है. इसके अलावा भी कई ऐसी चीजें है जो अखिलेश यादव के पक्ष में जाती हैं. कुछ जानकार तो यहां तक मानते हैं कि अखिलेश नेताओं को जुटा नहीं रहे बल्कि नेता और पार्टियां खुद ही उनके साथ जुड़ रहे हैं.
1) कैडर- उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का कैडर यानि कार्यकर्ताओं और फौज और संगठन अच्छा खासा है. जो बीजेपी के अन्य विरोधियों के मुकाबले अखिलेश यादव को बीस साबित करता है.
2) चुनाव ना लड़ने का फैसला- अखिलेश यादव चुनाव ना लड़ने का फैसला कर चुके हैं. वैसे अखिलेश यादव से लेकर मायावती और योगी आदित्यनाथ तक ने विधान परिषद के रास्ते सूबे के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली है. लेकिन जानकार मानते हैं कि ये फैसला सपा के हक में जा सकता है. अखिलेश यादव अपनी पार्टी और गठबंधन के स्टार प्रचारक हैं. अगर वो चुनाव नहीं लड़ते तो इस सूरत में वो चुनाव प्रचार के लिए प्रदेशभर में जा सकेंगे, जबकि चुनाव लड़ने की सूरत में विरोधी कोई चर्चित उम्मीदवार उतारकर अखिलेश यादव की खेमेबंदी कर सकते थे.
3) गठबंधन- राजभर के बाद अगर जयंत चौधरी के साथ भी अखिलेश यादव सियासी रिश्तेदारी जोड़ने में सफल होते हैं तो पूर्व से पश्चिम तक को साधने की तरफ एक कदम और बढ़ा लेंगे. जाट और राजभर वोट बैंक को साधकर अखिलेश यादव अच्छी खासी सीटें जुटा सकते हैं.
4) यादव-मुस्लिम कॉम्बिनेशन और ब्राह्मणों को साधना- यादव-मुस्लिम वोट बैंक समाजवादी पार्टी का माना जाता है. इस बार अखिलेश यादव ब्राह्मणों को भी साधने में जुटे हैं, जानकार मानते हैं कि पहली नजर में भले ब्राह्मण वोट बैंक बीजेपी का लगे लेकिन इस बार ब्राह्मणों की नाराजगी का हवाला देकर सपा, बसपा से लेकर कांग्रेस तक ब्राह्मण वोट बैंक में अपनी-अपनी हिस्सेदारी तलाश रहे हैं.
5) बागी विधायक और नाराज वोटर्स-सियासी जानकार मानते हैं कि बीजेपी भले खुद को जीत का दावेदार मान रही हो लेकिन उसके बागी विधायक और नाराज वोटर्स बहुत अहम कड़ी साबित हो सकते हैं. बागी विधायकों की पसंद अगर समाजवादी पार्टी बनती है तो अखिलेश सत्ता की रेस में कुछ और कदम आगे निकल सकते हैं.
क्या अखिलेश बनेंगे बीजेपी का विकल्प ? वैचारिक नहीं 'व्यावसायिक' गठबंधन का है जमाना
महाराष्ट्र की शिवसेना पार्टी से लेकर पंजाब के शिरोमणि अकाली दल तक कभी बीजेपी के साथ एनडीए का हिस्सा थे, क्योंकि इसे एक तरह का वैचारिक गठबंधन कहा जा सकता है. लेकिन मौजूदा दौर वैचारिक नहीं 'व्यावसायिक' गठबंधन का है, जहां भले विचार ना मिलते हों लेकिन व्यवसाय यानि बिजनेस के लिए एक होना पड़ता है. यहां व्यवसाय या बिजनेस राजनीति है और लक्ष्य है वोट पाना.
ये व्यावसायिक गठबंधन एक तरह से बीजेपी की ही देन है. लोकसभा चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक बीजेपी छोटे-छोटे दलों से गठबंधन करती आई है और अब ऐसा ही कुछ अखिलेश यादव भी कर रहे हैं. जिसमें किसी विधानसभा सीट पर गठबंधन ना होने के बावजूद दूसरा साथी चुनाव मैदान में अपना प्रत्याशी नहीं उतारता लेकिन उसके समर्थन में प्रचार से लेकर संगठन तक को वहां झोंक देता है.
मुद्दे जो अखिलेश के लिए बनेंगे 'बटेर'
चुनाव हों और मुद्दे ना हों, ये बिल्कुल नामुमकिन है. मौजूदा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी भले अपने हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और राम मंदिर के मुद्दे को लेकर चल रही हो. लेकिन कुछ ऐसे मुद्दे भी हैं जो भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ जाते हैं और चुनावी मौसम में विरोधियों के हाथ लगे ये मुद्दे किसी बटेर से कम नहीं है.
1) महंगाई- मौजूदा वक्त में महंगाई सबसे बड़ा मुद्दा है. पेट्रोलियम पदार्थों से लेकर खाद्य तेलों और खाने-पीने की चीजों तक की महंगाई की मार जनता पर पड़ रही है. किचन से लेकर घर तक का बजट बिगड़ रहा है. बीजेपी का हर विरोधी इस मुद्दे को भुनाने में जुटा हुआ है. लेकिन जानकार मानते हैं कि अगर अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी को जनता की नजर में मुख्य विपक्षी दल से मुख्य विकल्प तक ले जाते हैं तो महंगाई का मुद्दा उनके वारे-न्यारे करवा सकता है. गौरतलब है कि प्याज के दाम और महंगाई बीजेपी को पहले भी चुनाव हरवा चुकी है.
2) किसान आंदोलन- केंद्र सरकार के 3 कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के हल्ला बोल को एक साल हो चुका है. किसान किसी भी राज्य के चुनाव में अपनी भूमिका निभाते हैं. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी ये अहम मुद्दा रहने वाला है, जो बीजेपी के खिलाफ जा सकता है और अखिलेश यादव जैसे विरोधी इसे लपक सकते हैं.
3) लखीमपुर खीरी- लखीमपुर खीरी हिंसा के बाद सियासी रोटियां भी खूब सेंकी गई. कांग्रेस ने खुद को किसानों का सबसे बड़ा हितैषी बताते हुए राहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी तक ने वहां डेरा डाला और लाखों रुपये का मुआवजा भी दिया. बीजेपी के खिलाफ जाता ये मुद्दा भी विपक्षियों के लिए अहम साबित हो सकता है.
4) एंटी इनकंबेंसी- बीते उत्तर प्रदेश लोकसभा चुनाव में भी कई दूसरे राज्यों की तरह पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट पड़े और बीजेपी देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता पर काबिज हुई. इस बार चुनाव से पहले बीजेपी विकास का दावा भले कर रही हो लेकिन ये भी तय है कि उसे केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक की एंटी इनकंबेंसी यानि सत्ता विरोधी लहर झेलनी पड़ सकती है. इस लहर को भुनाने के मकसद से हर विरोधी दल यूपी के चुनावी दंगल में उतरा है. ब्राह्मणों की नाराजगी का मुद्दा इसी बात को ध्यान में रखते हुए उठाया गया है.
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अखिलेश यादव की चुनौतियां ?
बीजेपी- अखिलेश यादव की सबसे बड़ी जंग बीजेपी के साथ ही है. सत्ता पर काबिज बीजेपी को हटाकर ही अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब संजो रहे हैं. लेकिन 2014, 2019 लोकसभा और 2017 विधानसभा चुनाव के नतीजों में बीजेपी सपा समेत सभी विरोधियों को पानी पिला चुकी है. इस बार भी हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और राम मंदिर के साथ ही बीजेपी यूपी की पिच पर उतर रही है.
बसपा- मायावती की बहुजन समाजवादी पार्टी को भले सियासी जानकार कम आंक रहे हों लेकिन यूपी में उनकी अनदेखी कोई नहीं कर सकता. भले सपा और बसपा की साझेदारी बुआ मायावती और बबुआ अखिलेश यादव के रूप में फेल साबित हुई हो लेकिन दलित वोट बैंक पर मायावती की पकड़ अखिलेश की मुसीबत बन सकती है.
प्रियंका गांधी-कांग्रेस भले यूपी में चौथे और पांचवे नंबर की पार्टी माना जा रहा हो लेकिन प्रियंका गांधी का यूपी में एक्टिव होने कांग्रेस की सेहत के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है. प्रियंका गांधी अगर कुछ सीटें जुगाड़ने में कामयाब रही तो जानकार मानते हैं कि इसका नुकसान अखिलेश यादव को ही होगा. क्योंकि वोट बैंक के मामले में दोनों की नजर एक ही जगह है. वैसे 2017 में कांग्रेस का हाथ थामकर अखिलेश यादव साइकिल की सवारी कर चुके हैं लेकिन जनता ने अपने हाथ से साइकिल को पंचर कर दिया था.
असदुद्दीन ओवैसी- ओवैसी ऐलान कर चुके हैं उनकी पार्टी AIMIM प्रदेश की 100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. अगर ऐसा हुआ तो ये समाजवादी पार्टी के यादव-मुस्लिम फैक्टर पर असर डालेगा. जानकार मानते हैं कि जिस तरह से ओवैसी के बिहार विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन को देखते हुए, AIMIM को नकारना अखिलेश यादव के लिए बहुत मुश्किल होगा.
कौन बढ़ाएगा अखिलेश यादव की मुश्किल ? बयानबाजी-बीते दिनों अखिलेश यादव जिन्ना को पटेल, गांधी और नेहरू की कतार में खड़ा करके देश को आजादी दिलाने वाला बता चुके हैं. जिससे उनकी खूब किरकिरी हुई है, जानकार मानते हैं कि इस तरह की बयानबाजी से भी उनको बचना होगा क्योंकि बीजेपी के जिस वोट बैंक पर वो सेंध लगाने की सोच रहे हैं उन्हें ये बिल्कुल भी रास नहीं आएगा.
गठबंधन में सीट बंटवारा-अखिलेश यादव गठबंधन तो कर रहे हैं लेकिन उनके लिए गठबंधन के हर साथी के साथ सीट बंटवारा चुनौती साबित कर सकती है. सीट बंटवारे पर माथा पच्ची उनकी मुश्किल भी बढ़ा सकती है.
सभी बागियों को टिकट देना- यूपी चुनाव में अभी भी करीब 4 महीने का वक्त है. दूसरे दलों के बागी और नाराज नेता उनकी साइकिल पर सवार तो हो रहे हैं लेकिन सवाल है कि क्या सभी बागियों को अखिलेश यादव टिकट दे पाएंगे. क्योंकि उनके साथ बढ़ने वाला हर हाथ टिकट की चाह में आगे बढ़ रहा है.
पारिवारिक कलह- 2017 के विधानसभा चुनाव से ऐन पहले समाजवादी पार्टी और यादव परिवार में मची कलह किसी से छिपी नहीं है. जिसका नुकसान परिवार और पार्टी बीते विधानसभा चुनाव में झेल भी चुकी है. पार्टी और परिवार से अलग हुए नेता अखिलेश की राह का रोड़ा बन सकते हैं और बीजेपी समेत अन्य विरोधी भी इस पारिवारिक कलह को मुद्दा बनाएंगे.
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