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कौन है तेल कीमतें बढ़ने का जिम्मेदार ?

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत घटने के बावजूद भारत में पेट्रोल और डीजल के दाम कम नहीं हो रहे हैं. केंद्र और राज्य, दोनों में से कोई भी टैक्स कम करने को तैयार नहीं है. नतीजा जनता पर बोझ बढ़ता जा रहा है. क्या इसे जीएसटी के दायरे में लाकर लोगों को राहत दी जा सकती है. यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब अब तक किसी के पास नहीं है.

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Published : Mar 26, 2021, 5:25 PM IST

हैदराबाद : कोरोना की वजह से लोग पहले से ही परेशान हैं, ऊपर से पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती कीमत ने स्थिति और खराब कर दी है. ईंधन की बढ़ती कीमतों का विरोध पूरे देश में हो रहा है. कई स्थानों पर पेट्रोल और डीजल की कीमतें 100 रु प्रति लीटर को भी पार कर चुकी है. हंगामे के बाद कीमतों में कुछ पैसे की कटौती कर दी गई. इससे आम लोगों का बजट कम नहीं हुआ. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एलपीजी को जीएसटी के दायरे में लाने का भरोसा दिया था. इसके बाद पेट्रोल और डीजल को भी जीएसटी के दायरे में लाने की मांग उठने लगी. संसद में भी यह मुद्दा उठाया जा चुका है. हालांकि, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इससे साफ इनकार कर दिया है. उन्होंने कहा कि ईंधन तेल को जीएसटी की सीमा में लाने का अधिकार जीएसटी काउंसल के पास है. पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्रीय उत्पाद कर, सेस, सरचार्ज और राज्य द्वारा वैट लगाया जाता है.

भाजपा सांसद सुशील कुमार मोदी ने वित्त मंत्री के बयान से असहमति जताई. उन्होंने कहा कि अगले आठ से दस सालों तक पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में नहीं लाया जा सकता है, क्योंकि इसकी वजह से हर साल कम से कम दो लाख करोड़ का टैक्स घाटा राज्यों को होगा.

सुशील मोदी ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स के जरिए पांच लाख करोड़ की कमाई करते हैं. आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि टैक्स का कितना नुकसान होगा. लेकिन ये भी एक हकीकत है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर अधिक से अधिक टैक्स लगाने की होड़ मची है. इससे आम जनता परेशान है.

पेट्रोल की बढ़ती कीमत को लेकर तेल उत्पादक देशों पर जिम्मेवारी डालने की हमारे नेताओं की आदत हो चुकी है. उनका कहना है कि भारत को अपनी जरूरत का 89 प्रतिशत कच्चा तेल विदेश से मंगाना पड़ता है. 53 फीसदी ईंधन गैस का आयात किया जाता है. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है. 2008 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत 150 डॉलर प्रति बैरल थी. तब भारत में पेट्रोल 50 रु. प्रति लीटर और डीजल की कीमत 35 रु प्रति लीटर थी. आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत 60 डॉलर प्रति बैरल है, इसके बावजूद पेट्रोल और डीजल की कीमतें आसमान क्यों छू रहीं हैं.

कड़वा सत्य यही है कि इसके लिए राज्य और केंद्र दोनों ही जिम्मेवार हैं. दोनों में से कोई भी अपनी आमदनी कम नहीं करना चाहता है. टैक्स घटाने से उनका नुकसान होगा, ऐसा वे दावा करते हैं. पिछले सात सालों में पेट्रोलियम उत्पादों के जरिए 556 फीसदी तक आमदनी बढ़ी है. वित्त राज्य मंत्री संसद में इसकी जानकारी दे चुके हैं.

रंगराजन कमेटी पहले ही यह बता चुकी है कि पेट्रोल पर 56 फीसदी और डीजल पर 36 फीसदी तक ड्युटी लगती है. आज की तारीख में ईंधन पर 70 फीसदी तक उत्पाद कर लगाया जा रहा है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कीमतें जितनी भी हों, सरकार कीमतें बढ़ाती जा रही है. यह जनता की जेब पर डाका नहीं, तो और क्या है. संसदीय समिति ने टैक्स को संतुलित करने की अनुशंसा की है.

आरबीआई गवर्नर शक्ति कांत दास ने सुझाव दिया है कि राज्य और केंद्र को मिलकर इसके बारे में निर्णय लेना चाहिए. इसे जीएसटी के दायरे में लाने से कीमतें काफी हद तक कम हो सकती हैं.

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जनता का हित सर्वोपरि है. इसे ध्यान में रखते हुए केंद्र को कीमतों को तत्काल रेगुलराइज करने की पहल करनी चाहिए. राज्यों को भी इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए.

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