कोलकाता : मालदा में इस बार कांग्रेस के लिए स्थिति काफी कठिन है. तृणमूल और भाजपा दोनों मालदा में 12 विधानसभा क्षेत्रों का नियंत्रण लेने के लिए प्रत्यक्ष तौर पर आमने-सामने की लड़ाई में हैं. अब यह सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति में कांग्रेस पश्चिम बंगाल में अपने अंतिम किले पर कायम कैसे रख पाएगी.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि मालदा का राजनीतिक इतिहास अब तक जिले में आभासी मिथक रहे चौधरी के मौन अस्तित्व पर मंडरा रहा है. यह उनके ही कारण था कि कांग्रेस पिछले वाम मोर्चा शासन या वर्तमान तृणमूल कांग्रेस शासन के चरम के दौरान भी जिले के अधिकांश निर्वाचन क्षेत्रों को बचाए रखने में कामयाब रही है.
चौधरी की मृत्यु के बाद उनके दो भाईयों जैसे अबू हसीम खान चौधरी उर्फ डालू और अबू नसर खान चौधरी उर्फ लेबू साथ ही चौधरी की बहन रूबी नूर की बेटी मौसिम बेनजीर नूर ने मालदा में कांग्रेस का झंडा ऊंचा रखने का काम किया है. बाद में डालू के बेटे ईशा खान चौधरी जो वर्तमान में सुजापुर निर्वाचन क्षेत्र से पार्टी के विधायक हैं, भी इस दौड़ में शामिल हुए.
हालांकि 2016 से चीजों ने एक अलग मोड़ लेना शुरू कर दिया जब कांग्रेस ने जिले में धीरे-धीरे अपनी पकड़ खोनी शुरू कर दी. लेबू, जो कि सुजापुर से कांग्रेस के तत्कालीन विधायक थे, तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए. 2019 से पहले तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर मौसिम बेनजीर नूर का कांग्रेस आलाकमान से झगड़ा हुआ और वह भी तृणमूल में शिफ्ट हो गईं.
उसने मालदा (उत्तर) लोकसभा क्षेत्र से तृणमूल के लिए चुनाव लड़ा लेकिन भाजपा के खगेन मुर्मू से हार गईं. राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि 2017 के बाद से भगवा खेमे ने धीरे-धीरे उत्तर बंगाल में अन्य जगहों की तरह मालदा में अपने संगठन नेटवर्क को मजबूत किया है. इसलिए गनीखान चौधरी का करिश्मा अब कांग्रेस के पक्ष दिखाई नहीं दे रहा है.
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अब सवाल यह है कि मालदा में कांग्रेस की किस्मत किस ओर करवट लेगी. क्या वे अपनी विजयी सीटों को बरकरार रख पाएंगे और गनीखान चौधरी का करिश्मा बना रहेगा? जो भी हो इसके लिए हमें 2 मई 2021 तक इंतजार करना पड़ेगा.