पटना :बिहार में जाति सियासत के जो सूरमा रहे उनके लिए अपनी राजनीतिक विरासत का उत्तराधिकारी खोजना आसान रहा. इसका कारण था कि उन्हें राजनीति में बड़ा काम करने वाला नहीं चाहिए था. बल्कि परिवार में जो पढ़ा हो उसे जिम्मेदारी देने की सोच थी. एलजेपी भी इसी सोच के साथ आगे बढ़ी. चिराग को जिम्मा मिला लेकिन चिराग अपने पिता की विरासत को ज्यादा दिनों तक संभाल नहीं पाए.
चिराग के कंधों पर जिम्मेदारी
बिहार की सियासत में कभी राजनीति की चाबी लेकर टहलने वाले रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत को संभालने का जिम्मा चिराग पासवान के कंधे पर देने की चर्चा शुरू हुई तो सियासत में यह बात शुरू हो गई क्या रामविलास को उनके सियासत का उत्तराधिकारी मिल गया है.
लोजपा के सियासी इतिहास को अगर खंगाला जाए तो लालू और नीतीश जैसे लोग रामविलास पासवान को मौसम वैज्ञानिक कहते थे. लेकिन राजनीति का विज्ञान जब बदला तो रामविलास पासवान की पूरी सियासत ही हाशिए पर चली गई.
2004 से 2014 तक की सियासत
देश की राजनीति में रामविलास पासवान ने सरकारों में अहम भूमिका निभाई. अटल बिहारी वाजपेई की सरकार में मंत्री रहे. तो उसके बाद बनी कांग्रेस में भी 2004 के लोकसभा चुनाव में 4 सीटों पर लोजपा ने बिहार में जीत दर्ज की.
2009 की राजनीतिक लड़ाई में मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और रामविलास पासवान ने अलग मोर्चा बनाकर बिहार और उत्तर प्रदेश में 128 सीटों पर चुनाव लड़ा. समझौते में बिहार में लोजपा के हिस्से में कुल 12 सीटें आईं. लेकिन लोजपा का खाता ही नहीं खुला. इसके बाद रामविलास पासवान के राजनीतिक नीतियों और निर्णयों को नई दिशा मिली जब चिराग पासवान ने पार्टी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई.
लोजपा की नई रणनीति
3 मार्च 2014, लोजपा की रणनीति और बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान के राजनीतिक उदय का दिन माना गया. जब देश में नरेंद्र मोदी के नाम की लहर चल रही रही थी. मुजफ्फरपुर के जयप्रकाश नारायण की उसी मैदान में 3 मार्च 2014 को नरेंद्र मोदी की रैली थी, जहां से जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ छात्र आंदोलन का बिगुल फूंका था, जिसे जेपी आंदोलन का नाम दिया गया था.
इसी मैदान में रामविलास पासवान, नरेंद्र मोदी वाले बीजेपी का हिस्सा बने. सियासत में जो सबसे ज्यादा चर्चा का विषय रहा वह यही था कि रामविलास को इस मंच पर लाने का पूरा श्रेय चिराग पासवान को जाता है. और जिसका चुनावी परिणाम भी चिराग पासवान ने पार्टी के खाते में डाला.
2014 और 2019 के रणनीतिकार
2014 में भाजपा से समझौते के बाद हुए चुनाव में लोजपा की खाते में 7 सीटें आई थी. मजबूत चुनाव की रणनीति ने लोजपा के खाते में 6 सीटें डाली. नालंदा की एक सीट, लोजपा हार गई थी. वहीं बात 2019 की करें तो जदयू के साथ आ जाने के बाद लोजपा ने चुनाव के दौरान तेवर बदल दिए.
चिराग पासवान को मनाने के लिए जेपी नड्डा, भूपद्र यादव के साथ ही बीजेपी के सभी कद्दावर नेता मैदान में आ गए. ताकि किसी तरीके से चिराग को मना लिया जाए. लोजपा को 6 सीट लोकसभा की मिली, जबकि पिता रामविलास पासवान को राज्यसभा की सीट दिलवाकर चिराग ने अपनी राजनीतिक रणनीति का लोहा मनवाया था.
हालांकि पार्टी में जिद की सियासत दूसरे राजनीतिक दलों को खटकने लगी थी. क्योंकि जमीन पर मजबूती चिराग की थी ना की पिता की. सियासत का हर मजमून गठबंधन धर्म की मजबूरी बनती जा रही थी.
2020 की राजनीतिक अतिवाद की भूल
सियासत में छोटी सी सफलता भी जमीनी हकीकत से अलग हटा देती है. और शायद यही चिराग पासवान के साथ भी हुआ. रील लाइफ में फेल होने के बाद रियल लाइफ में भी जमीन पर चिराग पकड़ नहीं बना पाए. लोकसभा चुनाव में मोदी के भरोसे तो सीट ठीक मिली लेकिन विधानसभा चुनाव में लोजपा कहीं टीकी ही नहीं.
2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश, बीजेपी से अलग थे तो लोजपा ने विधानसभा चुनाव के लिए जो सीटें मांगी थी उनमें से बीजेपी ने उसे 42 सीट दी थी. लेकिन सिर्फ 2 सीटों पर लोजपा जीत दर्ज कर पाई. हालांकि नीतीश और राजद का गठबंधन टूट गया. 2017 में फिर से सरकार बनी. 2 सीट होने के बाद भी लोजपा को नीतीश कुमार ने मंत्रिमंडल में जगह दी और पशुपति कुमार पारस को बिहार में पशुपालन एवं मत्स्य विभाग का मंत्री बनाया.
2020 के सियासी समर में चिराग पासवान नीतीश और बीजेपी दोनों की नीतियों से अलग चले गए और 136 सीटों पर उम्मीदवार उतारकर अपने नए राजनीतिक कद को बिहार के सामने रख दिया. हालांक बिहार की जनता ने लोजपा और चिराग की नीतियों को धूल चटा दिया. 136 में से सिर्फ 1 सीटों पर लोजपा को जीत मिली वह भी 2021 में जदयू को चली गई.