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हिमाचल में क्या है धारा 118 ? ऐसे भू-कानून की मांग के साथ उत्तराखंड में सड़क पर उतरे हैं लोग - धारा 118 क्या है

Section 118 in Himachal Land Reform: उत्तराखंड में लोग इन दिनों सड़कों पर हैं और कड़े भू-कानून बनाने की मांग हो रही है. इसके लिए हिमाचल की तरह कानून बनाने की मांग हो रही है. आखिर क्या है हिमाचल में धारा 118 और क्यों उत्तराखंड में उठ रही है इस तर्ज पर कानून बनाने की मांग. पढ़े डिटेल स्टोरी

Section 118 in Himachal Land Reform
Section 118 in Himachal Land Reform

By ETV Bharat Hindi Team

Published : Jan 2, 2024, 4:53 PM IST

शिमला:उत्तराखंड सरकार ने नए साल पर बड़ा फैसला लेते हुए प्रदेश के बाहर के लोगों के कृषि या उद्यान के नाम पर जमीन खरीदने पर रोक लगा दी है. दरअसल बीते लंबे वक्त से उत्तराखंड में भू-कानून में सुधारों की मांग हो रही है. जिसे लेकर पुष्कर सिंह धामी सरकार ने इसके लिए कमेटी बनाने के बाद अब अगले आदेश तक बाहर के लोगों के कृषि और उद्यान भूमि खरीदने पर रोक लगा दी है. उत्तराखंड के लोग लंबे वक्त से हिमाचल की तर्ज पर भू-कानून और भूमि सुधारों की मांग करते रहे हैं. दरअसल हिमाचल प्रदेश में बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते हैं और प्रदेश में धारा 118 के तहत जमीन के मालिकाना हक को लेकर बहुत ही कड़े नियम कायदे हैं.

उत्तराखंड में कड़े भू-कानून की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे लोग

आखिर क्या है धारा 118 ?-हिमाचल प्रदेश किरायेदारी और भूमि सुधार अधिनियम, 1972 (Himachal Pradesh Tenancy and Land Reforms Act 1972) के तहत हिमाचल के लोगों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए एक विशेष प्रावधान किया गया है. इस एक्ट में धारा 118 के तहत गैर-कृषकों को जमीन ट्रांसफर करने पर प्रतिबंध होगा, यानी हिमाचल का गैर-कृषक भी हिमाचल में ज़मीन नहीं खरीद सकता. यहां तक कि इस धारा के तहत हिमाचल में रहने वाला शख्स भी जो कृषक नहीं है या जिसके पास कृषि की भूमि नहीं है वो भी कृषि भूमि नहीं खरीद सकता.
धारा 118 के तहत हिमाचल प्रदेश का कोई भी जमीन मालिक किसी भी गैर कृषक को किसी भी जरिये (सेल डीड, गिफ्ट, लीज, ट्रांसफर, गिरवी आदि) से जमीन नहीं दे सकता. भूमि सुधार अधिनियम 1972 की धारा 2(2) के मुताबिक जमीन का मालिकाना हक उसका होगा जो हिमाचल प्रदेश में अपनी जमीन पर खेती करता होगा. जो व्यक्ति किसान नहीं है और हिमाचल में जमीन खरीदना चाहता है उसे प्रदेश सरकार से अनुमति लेनी होगी.

उत्तराखंड में उठ रही है कड़े भू कानून बनाने की मांग

सरकार से अनुमति लेने पर मालिकाना हक मिल सकता है लेकिन ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं. उद्योग या पर्यटन से जुड़े विकास से जुड़े मामलों में ही सरकार हर मसले और जानकारी की पूरी तरह से जांच परख के बाद ज़मीन पर फैसला लेती है. जमीन का CLU यानी चेंज लैंड यूज भी नहीं किया जा सकता. यानी जमीन अगर किसी अस्पताल के लिए ली गई तो उसपर मॉल या अन्य औद्योगिक इकाई नहीं लग सकती.

लीज को लेकर भी हिमाचल में कड़े नियम हैं. लीज या फिर पावर ऑफ अटॉर्नी की जमीन भी किसी हिमाचली के नाम पर ही होगी. मौजूदा सुखविंदर सुक्खू सरकार ने लीज के वक्त को घटाकर 99 वर्ष से 40 साल कर दिया है. हालांकि हिमाचल के भूमि सुधार अधिनियम में कई ऐसे पहलू हैं जो सरकार की मंजूरी के साथ गैर हिमाचली या गैर कृषक के ज़मीन खरीदने का प्रावधान है. लेकिन भूमि सुधार अधिनियम के तहत धारा 118 हिमाचल के लोगों की हितों की रक्षा करती है और ज़मीन का मालिकाना हक हिमाचल के किसान को ही देती है.

हिमाचल की तर्ज पर कड़ा कानून बनाने की मांग

सुप्रीम कोर्ट ने भी किया साफ-फरवरी 2023 में एक मामले की सुनवाई के दौरान देश की सर्वोच्च अदालत ने अहम टिप्पणी करते हुए कहा था कि हिमाचल प्रदेश में केवल किसान ही जमीन खरीद सकते हैं. अन्य लोगों को राज्य में जमीन खरीदने के लिए राज्य सरकार से इजाजत लेनी होगी. 1972 के भूमि सुधार अधिनियम का हवाला देते हुए जस्टिस पीएस सिम्हा और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि "इसका उद्देश्य गरीबों की छोटी जोतों (कृषि भूमि) को बचाने के साथ-साथ कृषि योग्य भूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए बदलने की जांच करना भी है"

धारा 118 की जरूरत क्यों पड़ी- हिमाचल प्रदेश को साल 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था. देश के 18वें राज्य के रूप में हिमाचल अस्तित्व में आया तो एक साल बाद ही भूमि सुधार कानून लागू हो गया. कानून की धारा 118 के तहत कोई भी बाहरी व्यक्ति कृषि की जमीन निजी उपयोग के लिए नहीं खरीद सकता. फिर लैंड सीलिंग एक्ट में कोई भी व्यक्ति 150 बीघा जमीन से अधिक नहीं रख सकता. हिमाचल में बागवानी और खेती के कारण यहां की प्रति व्यक्ति आय देश में टॉप के राज्यों पर है. ये बात अलग है कि उद्योगों के लिए सरकार जमीन देती है. भौगोलिक दृष्टि से हिमाचल के ज्यादातर इलाके देश के दुर्गम इलाकों में आते हैं. हिमाचल के पास सीमित भूमि है और पहाड़ी पर्यटन राज्य होने के नाते हिमाचल के निर्माताओं को पहले से भविष्य को भांपते हुए हिमाचल के छोटे और सीमांत किसानों के हितों की रक्षा के लिए ये कदम उठाया.

प्रदर्शन के बाद उत्तराखंड सरकार ने बाहरियों के कृषि या उद्यान के नाम पर जमीन खरीदने पर लगाई रोक

वरिष्ठ पत्रकार बलदेव शर्मा कहते हैं कि हिमाचल ने अपनी जमीन बचाने के लिए शुरू से ही काम किया है. धारा-118 के साथ छेड़छाड़ की कोई भी राजनीतिक दल सोच भी नहीं सकता. यहां की जनता जागरूक है और भूमि सुधार कानून के साथ कोई भी छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करती. वहीं, उत्तराखंड में ग्रामीण इलाकों में साधनहीन लोग धन के अभाव में अपनी जमीन बेच देते हैं. फिर वे लैंडलेस हो जाते हैं. सख्त भूमि कानून के अभाव में उत्तराखंड के जंगल भी खतरे में हैं और पलायन का कारण भी उत्तराखंड में यही रहा कि खेती से वहां रोजगार के खास प्रयास नहीं हुए. उत्तराखंड में इन्हीं कारणों से गांव बचाओ यात्रा जैसे आंदोलन भी हुए. अब धामी सरकार ने इस दिशा में पहल की है.

उत्तराखंड को क्यों चाहिए हिमाचल जैसा कानून- वरिष्ठ पत्रकार धनंजय शर्मा के मुताबिक पहचान का संकट सभ्यता का सबसे बड़ा संकट होता है. उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति भी अपनी पहचान बनाए रखना चाहती है. देश के विभिन्न हिस्सों से आए लोग यदि उत्तराखंड में बेरोक-टोक जमीन खरीदते रहेंगे तो यहां के सीमांत और छोटे किसान भूमिहीन हो सकते हैं. हिमाचल ने इस संकट को अपने अस्तित्व में आने पर ही पहचान लिया था. हिमाचल प्रदेश निर्माता और राज्य के पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाई. एस. परमार ने ऐसे कानूनों की नींव रखी कि हिमाचल की भूमि बाहरी लोग न ले पाएं. यहां बाहरी राज्यों के लोग जमीन नहीं खरीद सकते. यदि किसी को जमीन खरीदनी हो तो उसे भू-सुधार कानून की धारा-118 के तहत सरकार से अनुमति लेनी होती है. यही कारण हैं कि हिमाचल में बाहरी राज्यों के प्रभावशाली लोग ना के बराबर जमीन खरीद पाए हैं.

उत्तराखंड में इन दिनों भू कानून और मूल निवास का मुद्दा गर्माया है

शिमला में प्रियंका वाड्रा का घर है, लेकिन ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं. ऐसे प्रभावशाली लोगों को धारा-118 के तहत अनुमति मिलने में खास रुकावट नहीं आती. फिर भी प्रभावशाली से प्रभावशाली व्यक्ति को भी हिमाचल में कृषि योग्य जमीन खरीदने की अनुमति नहीं मिलती. इसे लेकर अंतिम फैसला सरकार ही लेती है.

बेशकीमती कृषि और बागवानी भूमि को धन्ना सेठों के हाथों बिकने से बचाने के लिए उत्तराखंड अब हिमाचल की राह पर चल पड़ा है. दो साल से भी अधिक समय से उत्तराखंड के जमीन बचाने वाले एक्टिविस्ट हिमाचल की तर्ज पर कड़ा भू अधिनियम कानून लागू करने की मांग उठा रहे थे. अब सीएम पुष्कर धामी ने इस संदर्भ में आदेश जारी करते हुए आगामी आदेश तक सभी जिलों के मुखिया को बाहरी लोगों को आवेदन के बाद कृषि और बागवानी के लिए ज़मीन खरीद की अनुमति पर रोक लगा दी है.

धनंजय शर्मा कहते हैं कि एक आंदोलन के बाद अलग राज्य बनने से पहले उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था. यहां मैदान और पहाड़ के अपने-अपने मसले थे. पहाड़ की जनता अपना अलग राज्य चाहती थी. उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहते हुए पहाड़ में विकास न के बराबर हुआ था. बेशक देहरादून, हरिद्वार और रुडक़ी में उद्योग और अन्य संस्थानों के होने से कई लाभ हैं, लेकिन ठेठ पहाड़ी लोग अभी भी विकास को तरस रहे हैं. ऋषिकेश सरीखे आध्यात्मिक नगरों के राज्य उत्तराखंड में देश ही नहीं विदेश से भी योग व अध्यात्म के इच्छुक आते हैं. ऐसे में पहचान को लेकर तो उत्तराखंड के पास कोई संकट नहीं है, लेकिन एक ऐसा संकट जरूर इस राज्य में है, जिसे लेकर यहां की जनता ने भरपूर आवाज उठाई.

उत्तराखंड में बाहरी राज्यों के लोगों ने धड़ल्ले से खरीदी है ज़मीन

उत्तराखंड के पर्यावरणविद अनिल जोशी के मुताबिक यदि उत्तराखंड की पहचान का संकट न होता तो यूपी से अलग होने की क्या जरूरत थी? उनका कहना है कि उत्तराखंड की जलवायु, जंगल, जल और जमीन बेशकीमती है. वन क्षेत्रों के बीच खेती की जमीन बहुत कम है और धन्नासेठ यहां की जमीन खरीद कर अपने स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं. यहां की जमीन पर बड़े रिजॉर्ट बनाकर लाभ कमाना चाहते हैं. हैरानी की बात ये है कि उत्तराखंड में खेती को बहुत महत्व नहीं मिल रहा है. हिमाचल बागवानी में टॉप पर है और बेमौसमी सब्जियों के उत्पादन में भी नाम कमा रहा है. उत्तराखंड में बागवानी और कृषि पर सरकारों ने खास प्रयास नहीं किया. इसलिये अब उत्तराखंड की जनता अपने यहां हिमाचल जैसा सख्त भू-सुधार कानून चाहती थी. जिसकी राह पर अब उत्तराखंड भी चल निकला है.

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