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ओपीएस, महंगाई, पुलिस भर्ती पेपर लीक, गलत टिकट वितरण ने तोड़ा भाजपा के रिवाज बदलने का सपना

हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. यहां सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को बड़ा झटका लगा है, कांग्रेस ने आखिरकार भाजपा के हाथों से सत्ता छीन ली. ऐसे में अब सवाल उठ रहा है कि आखिर कैसे भाजपा के हाथों से हिमाचल प्रदेश निकल गया? पूरी खबर में पढ़ें बड़े कारण...

bjp defeat in himachal pradesh
bjp defeat in himachal pradesh

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Published : Dec 8, 2022, 9:43 PM IST

शिमला:आखिरकार हिमाचल प्रदेश में पांच साल बाद सत्ता बदलने का रिवाज कायम रहा. भाजपा ने दावा किया था कि इस बार पार्टी 37 साल से चले आ रहे रिवाज को बदलेगी, लेकिन ये संभव नहीं हुआ. जनता में इस समय सबसे अधिक चर्चा इसी बात की है कि भाजपा की लुटिया डूबी तो आखिर क्यों डूबी. भाजपा की हार का मुख्य कारण कर्मचारियों का ओल्ड पेंशन स्कीम को लेकर आंदोलन रहा. उस आंदोलन को बाद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की सदन में गर्वोक्ति कि जिसे नेताओं वाली पेंशन चाहिए वो चुनाव लड़े, भी आम जनता को पसंद नहीं आई. भाजपा का टिकट वितरण भी जनता को नहीं पचा. बागियों ने पार्टी का खेल बिगाड़ा.

नालागढ़ से कांग्रेस से आए लखविंद्र राणा को टिकट दिया और अपने मजबूत प्रत्याशी केएल ठाकुर को दरकिनार किया गया. केएल ठाकुर चुनाव जीत गए हैं. पुलिस पेपर भर्ती लीक मामले में भी भाजपा की छीछालेदर हुई. हालांकि भाजपा सरकार ने तुरंत पेपर रद्द कर नए सिरे से प्रक्रिया शुरू की, लेकिन पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा. महंगाई एक अन्य मुद्दा रहा.

पार्टी ने आंतरिक सर्वे में भी महंगाई को मुद्दा माना था. इसके अलावा सत्ता विरोधी रुझान भाजपा की हार का बड़ा कारण रहा. ये सत्ता विरोधी रुझान ही था कि सरकार के सिर्फ दो ही मंत्री चुनाव जीत पाए. इस बार सुरेश भारद्वाज, वीरेंद्र कंवर, राजीव सैजल, रामलाल मारकंडा, सरवीण चौधरी, गोविंद ठाकुर, राकेश पठानिया, राजेंद्र गर्ग को हार का सामना करना पड़ा. भाजपा की लाज काफी हद तक मंडी व चंबा जिला ने बचाई. मंडी में पार्टी को दस में से नौ सीटें मिल गई. चंबा में तीन सीटों पर जीत हासिल हुई. भाजपा को नए चेहरों ने जीत दिलाई. करसोग से दीपराज और आनी से लोकेंद्र का नाम इनमें प्रमुख है.

खैर, हिमाचल में जिस समय भाजपा उपचुनाव में हारी थी, उस समय पार्टी के पास संभलने का मौका था. भाजपा का दावा है कि वो 365 डेज चुनाव के मोड पर रहती है, जो सही भी है, लेकिन ऐसी सक्रियता का क्या लाभ जिसका परिणाम सफलता में तबदील न हो सके. तो उपचुनाव की हार के बाद भी पार्टी ने सबक नहीं सीखा. सरकार ने विभिन्न विभागों में भर्तियों के मामलों को उलझा कर रखा. कुछ मामले कोर्ट तक पहुंचे. इस कारण बेरोजगार युवाओं में रोष था.

अकसर ये आरोप लगते रहे कि मुख्यमंत्री की अफसरशाही पर पकड़ नहीं है. मुख्य सचिवों का बदलना भी इस आरोप का गवाह बना. अफसरशाही बेकाबू है और सीएम उसे संभाल नहीं पा रहे, ये आरोप विपक्ष अकसर लगाता रहा. इसका भी संकेत जनता में गया. टिकट वितरण में भाजपा ने जिस कदर अदूरदर्शिता दिखाई, अंदरखाते प्रदेश के नेता भी ये मानने लगे थे कि इसका नुकसान उठाना पड़ेगा. बागियों के कारण भाजपा को बड़सर सीट पर नुकसान हुआ. इसके अलावा फतेहपुर सीट पर भी असर देखने को मिला. नालागढ़ में तो बागी ने चुनाव ही जीत लिया.

किन्नौर सीट पर तेजवंत नेगी ने पार्टी को नुकसान पहुंचाया तो ठियोग में इंदू वर्मा का फैक्टर भारी पड़ा. इंदू वर्मा टिकट की दावेदार थी, लेकिन पार्टी से पॉजिटिव संकेत न मिलने पर वे कांग्रेस में चली गई. कांग्रेस में भी उन्हें टिकट नहीं मिला तो वे निर्दलीय मैदान में उतर गई. यदि इंदू का भाजपा का टिकट मिल जाता तो ठियोग में चांस बन सकते थे. ये भी अचरज की बात है कि भाजपा व कांग्रेस के वोट शेयर में कोई खास फर्क नहीं है, लेकिन मामूली फर्क ने ही सीटों में इतना अंतर ला दिया है.

फिलहाल जयराम ठाकुर ने हार के कारणों की समीक्षा की बात कही है. कांग्रेस में अब सीएम पद की रेस होगी. सीएम की कुर्सी के लिए भीतर ही खींचतान शुरू हो गई है. देखना है कि भाजपा को परास्त करने के बाद कांग्रेस अब ओपीएस व पहली ही कैबिनेट में एक लाख नौकरियों सहित महिलाओं को पंद्रह सौ रुपए महीने का वादा कैसे पूरा करेगी.

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