लखनऊ:उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव2022 के पांचवें चरण की वोटिंग के बाद अब सियासी पार्टियां छठवें चरण के लिए जुट गई हैं. वहीं, पांचवें चरण में 12 जिलों की 61 विधानसभा सीटों पर कुल 57.29 फीसद मतदान हुआ, जो 2017 की तुलना में करीब 0.95 फीसद कम है. ऐसे में तमाम तरह के सियासी उलटफेर भी देखने को मिल सकते हैं. पांचवें चरण की 61 सीटों पर 57.32 फीसदी मतदान रहा जबकि 2017 इन्हीं सीटों पर 58.24 फीसदी और 2012 में 55.12 फीसदी वोटिंग हुई थी. इस हिसाब से देखें तो 2012 की तुलना में 2017 में वोटिंग में 3 फीसदी का इजाफा हुआ था. वोटिंग फीसदी बढ़ने से बीजेपी को जबरदस्त फायदा और विपक्षी दलों का नुकसान हुआ था.
2012 और 2017 के पांचवें चरण में राजनीतिक दलों को मिलने वाली सीटों में तुलना करें तो समाजवादी पार्टी को काफी सियासी नुकसान उठाना पड़ा था. 2012 के विधान सभा चुनाव के पांचवें चरण में समाजवादी पार्टी को 41 सीट मिली थी और जब 2017 में विधान सभा चुनाव हुआ और मतदान प्रतिशत करीब 3 फीसद अधिक रहा तो सियासी उलटफेर हुआ और जिस समाजवादी पार्टी के पास 41 सीटें थी. वह घटकर 5 सीटों पर सिमट गई. 2012 में जिस भारतीय जनता पार्टी के पास मात्र 5 सीटें थी. उसे 2017 के पांचवें चरण में अपना दल गठबंधन के साथ 50 सीटें मिली थी, जो उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का एक बड़ा कारण रहा. 2012 के विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 41 सीटों पर जीत मिली थी तो भारतीय जनता पार्टी को 5 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था.
इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी को 7 सीट मिली तो कांग्रेस पार्टी की झोली में छह सीटें मिली थी, वहीं, 2 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीते थे. इसके बाद जब 2017 के विधानसभा चुनाव हुए तो पांचवें चरण में भारतीय जनता पार्टी और अपना दल गठबंधन को 50 सीटें मिली, जिनमें भाजपा को 47 व अपना दल को 3 सीट मिली थी. इसके अलावा समाजवादी पार्टी को मात्र 5 सीट ही मिल पाई थी. बहुजन समाज पार्टी के खाते में 3 सीट गई तो कांग्रेस पार्टी की झोली में एक सीट और 2 सीटों निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी.
सुनिए क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक योगेश मिश्रा कहते हैं कि मतदान यह बताता है कि लोकतंत्र के प्रति अनास्था कितनी तेजी से बढ़ रही है. कहावत है कि 9 दिन चले अढ़ाई कोस तो 5 साल में भी हम अढ़ाई फीसद मतदान नहीं बढ़ा पाए. यानी हमारे मतदान का प्रतिशत नहीं बढ़ पा रहा है. पिछली बार मतदान प्रतिशत और इस बार के मतदान फीसद की बात करें स्थिति खुद ही स्पष्ट हो जाती है. हालांकि इन दोनों की तुलना नहीं की जा सकती. वहीं, पिछली बार की स्थिति क्या थी, क्या राजनीतिक दलों के मुद्दे थे और सत्ताधारी दल के प्रति क्या anti-incumbency थी, उस आधार पर मतदान होता है.
आज जो स्थिति है उसमें जो मतदान का फीसद है वो काफी निराश करने वाला है. यह लोकतंत्र के प्रति कम हो रही आस्था को लेकर एक बड़ा संदेश है. राजनीतिक दलों को इस पर चिंतन करना होगा और एक विकल्प देना होगा कि हम मतदान प्रतिशत को किस प्रकार बढ़ा सकते हैं. उम्मीदवार पसंद का राजनीतिक दल नहीं देते जिसको लेकर एक नए विकल्प को देने की बात राजनीतिक दलों के साथ-साथ चुनाव आयोग के स्तर पर भी होना चाहिए. चुनाव आयोग को भी इस पर चिंतन करना होगा और इस पर काम करने की जरूरत है कि आखिर वोट प्रतिशत क्यों नहीं बढ़ रहा है.