चेन्नई :तमिलनाडु की दो प्रसिद्ध दलित महिला साहित्यकारों की कृतियों को पाठ्यक्रम से हटाने के दिल्ली विश्वविद्यालय के फैसले पर गुस्सा और हंगामे का माहौल है. मुख्यमंत्री एमके स्टालिन से लेकर माकपा सांसद सुवेंकटेशन तक ने निंदा की है.
लेखकों ने खुद इसकी आलोचना की है और सुकिथरानी ने इसे असंतोष की आवाज को कुचलने का कदम करार दिया है. उनके अनुसार मंशा बहुत स्पष्ट है और इसके पीछे केंद्र सरकार का हाथ है.
उन्होंने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा कि मेरी कविता को हटाना चिंताजनक है लेकिन अप्रत्याशित नहीं है. विशेष रूप से दलितों और महिलाओं की असहमति की आवाजें लगातार खामोश की जा रही हैं. केंद्र सरकार जानबूझकर दलित बुद्धिजीवियों की अनदेखी कर रही है और जाति की राजनीति कर रही है.
उनकी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है और वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय सहित समकालीन भारतीय कविता के कुछ संकलनों का हिस्सा हैं. उनमें से कुछ विदेशों में विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का हिस्सा है,
यही हाल बामा का है. वह कहती हैं कि हम तीनों जिनके काम हटा दिए गए हैं, वे दलितों और शोषित जनता की आवाज हैं. वे (केंद्र सरकार) सोचते हैं कि असहमति को शांत करके वे भारत के जातिवादी सामाजिक ढांचे को छुपा सकते हैं. यह उनके हिंदुत्व एजेंडे को बढ़ावा देने का एक प्रयास है.
वे हमारी रचनाओं को किसी अन्य दलित लेखक के साथ बदल सकते थे लेकिन उन्होंने एक उच्च जाति के लेखक के साथ बदल दिया है. उन्होंने हिंदुत्व की विचारधारा को मानने वालों को ही शामिल किया है. यह एक जातिवादी कदम है और इसे हिंदुत्व की राजनीति के रूप में देखा जाना चाहिए.
सुकीरथरानी की दो कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है. कैमारू (लाभ) शीर्षक वाली एक कविता एक हाथ से मैला उठाने वाले के भयानक जीवन को बताती है. कविता एक कार्यकर्ता द्वारा सामना किए गए संघर्ष का वर्णन करती है और पाठकों से पूछती है कि क्या हाथ से मैला ढोने वालों की खातिर एक दिन के लिए शौच को रोकना संभव है. जबकि समाज में मैला ढोने की प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित है. वह पूछती हैं कि इस बारे में लिखने में क्या गलत है?
एक अन्य कविता एन उदल (माई बॉडी) महिलाओं पर हमलों और उनके शरीर के व्यावसायीकरण के ज्वलंत मुद्दे का वर्णन करती है. सुकीरथरानी तर्कसंगत राजनेताओं, लेखकों, सांसदों, नारीवादियों से पितृसत्ता के खिलाफ आवाज उठाने का आग्रह करती हैं.
उपन्यासकार बामा गुस्से में हैं. ईटीवी भारत से बात करते हुए वह कहती हैं कि केंद्र सरकार नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के कार्यान्वयन के तहत दलितों और आदिवासियों के सभी महत्वपूर्ण कार्यों को पाठ्यक्रम से हटा रही है. विश्वविद्यालय ने मुझे हटाने के बारे में सूचित नहीं किया. समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों पर साहित्य को हटाने वाली सरकार उनकी धर्मनिरपेक्ष पहचान मिटाने का संकेत है.
उनका प्रशंसित उपन्यास संगथी जाति और धर्म के नाम पर महिलाओं के उत्पीड़न को दर्शाता है. यह पाठक को झकझोरता है और महिलाओं में स्वतंत्रता के विचार को जगाता है. दिल्ली विश्वविद्यालय, एक केंद्रीय विश्वविद्यालय ने अकादमिक परिसरों में इन मुद्दों पर बातचीत को समाप्त करने के लिए इसे हटा दिया है. इसे सामाजिक परिवर्तन पसंद नहीं है. वह चुटकी लेती हैं कि आप इस सरकार से और क्या उम्मीद कर सकते हैं?
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उन्होंने केंद्र सरकार पर मनुवादी नीतियों का पालन करने और महिलाओं के उत्थान को रोकने की कोशिश करने का आरोप लगाते हुए कहा कि इससे स्वतंत्रता और समानता की भावना को रोका नहीं जा सकता है. उन्होंने कहा कि महिलाओं में स्वतंत्रता की इच्छा अदम्य है. उन्होंने आग्रह किया कि न केवल दलित, बल्कि समानता, लोकतंत्र और सामाजिक परिवर्तन में विश्वास रखने वाले किसी भी व्यक्ति को दिल्ली विश्वविद्यालय से दलित साहित्य को हटाने के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए.